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चिन्तन इन्द्रिय-चेतना का / १०३ प्रमाण दोनों के पास नहीं है संस्कृत का प्रसिद्ध श्लोक है
संदिग्धेऽपि परे लोके त्याज्यमेवाशुभं बुधैः ।
यदि नास्ति तत: किं स्यात्, यद्यस्ति नास्तिको हतः ।। परलोक संदिग्ध है। उसके संदिग्ध होने पर भी व्यक्ति को अमुक कर्म छोड़ देने चाहिए। परलोक नहीं है इसलिए मन में जो आए करें, इतना उच्छंखल व्यक्ति को नहीं होना चाहिए। प्रश्न हुआ—किसलिए? कहा गया- यदि परलोक नहीं है तो कष्ट सहना व्यर्थ हो जाएगा किन्तु यदि परलोक है तो नास्तिक मारा जाएगा।
एक व्यक्ति कहता है-परलोक नहीं है। प्रश्न हुआ—परलोक नहीं है इसका प्रमाण क्या है? दूसरा कहता है-परलोक है। प्रश्न हुआ—अगर है तो बताओ किसने देखा है? दोनों ओर प्रश्न हैं। नास्तिक आस्तिक से पूछे-परलोक है, इसका प्रमाण दो? आस्तिक पूछ सकता है—परलोक नहीं है, इसका प्रमाण दो। प्रमाण दोनों के पास नहीं है। सबकी गति : मेरी गति
केवल इन्द्रियों के आसपास घूमने वाला चिंतन बड़ा खतरनाक होता है। एक युवक के मन में इस प्रकार का चिंतन उत्पन्न होना स्वाभाविक है । उस पर इन्द्रियों का भारी दबाव रहता है। उसे उनके सिवाय दुनिया में कोई सार वस्तु लगती ही नहीं। उसी के आधार पर उसका चिन्तन बढ़ता चला जाता है। लोक और परलोक के विषय में वह संदेहशील बन जाता है। काम-भोग की आसक्ति को उचित ठहराते हुए वह कहता है
जणेण सद्धिं होक्खामि इइ बाले पगम्भई।
कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई। ___ मैं दुनिया के साथ चलूंगा। दुनिया के अरबों-अरबों आदमी जो काम कर रहे हैं, उसे मैं अकेला नहीं करूंगा तो क्या फर्क पड़ेगा? जैसा सबका होगा, मेरा भी हो जाएगा। जो सबको मिलेगा, मुझे भी मिल जाएगा। इस मामले में वह अपने आपको प्रवाहपाती या सबके साथ चलने वाला मान लेता है। वह कहता हैसबकी गति मेरी गति । मैं जनता के साथ चलूंगा, बहुमत के साथ चलूंगा। यह चिंतन इन्द्रिय चेतना में सांस लेने वाले व्यक्ति का चिंतन होता है।
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