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________________ १०२ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य व्यापक है परलोक का प्रश्न इन्द्रिय चेतना में जीने वाले व्यक्ति का चिन्तन इससे भिन्न नहीं हो सकता। वह इन्द्रिय की सीमा में ही सारी बात सोचता है । उससे बाहर की कोई बात वह सोच ही नहीं सकता हत्यागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अस्थि वा नत्थि वा पुणो ।। काम-भोग प्रत्यक्ष हैं, मेरे सामने हैं, हाथ में आए हुए हैं । जो आने वाले हैं, वे कालिक हैं । न जाने कब आएंगे? कौन जानता है-परलोक है या नहीं? यह चिन्तन न जाने कितने व्यक्तियों के मस्तिष्क में चक्कर लगाता होगा। कभी-कभी साधु-संन्यासी के मन में भी यह प्रश्न उठ जाता होगा-इतनी तपस्या कर रहे हैं, साधना कर रहे हैं, ग्राम-अनुग्राम विहार कर रहे हैं, घर-बार छोड़कर अकिंचन होकर चल रहे हैं, सर्दी-गर्मी सहते हैं, और भी न जाने क्या-क्या सहते हैं। आगे कुछ है या नहीं? क्या होगा? जब-जब साधक की चेतना इन्द्रियों के निकट जाती हैं। तब-तब यह प्रश्न उभरता है । ऐसी स्थिति में दूसरा प्रश्न उभरता ही नहीं । यह प्रश्न इतना व्यापक बना हुआ है कि हर व्यक्ति के मन में उभर आता है। धरती भी नहीं झेल पाएगी आचार्य डालगणी जोधपुर विराज रहे थे। मुसद्दी बच्छराजजी सिंघी डालगणी के पास आए। वे विचारों से पक्के नास्तिक थे। डालगणी के प्रति उनकी श्रद्धा थी। उन्होंने कहा-महाराज ! आप लोच करवाते हैं, पैदल चलते हैं, सर्दी सहते हैं, गर्मी सहते हैं, भूख-प्यास सहन करते हैं । इस शरीर को भारी कष्ट देते हैं, होना-जाना क्या है? आगे तो कुछ है नहीं। क्यों सता रहे हैं आप अपने शरीर को? डालगणी ने कहा—मान लो ! तुम्हारा कहना ठीक है, परलोक नहीं है इसलिए हमने जो तपस्या की, कष्ट सहा, आराम नहीं भोगा, वह व्यर्थ चला जाएगा। इसके सिवाय तो कुछ नहीं होगा। पर बताओ-अगर हमारा मत सही है, परलोक है तो तुम्हारा क्या होगा? सिंघीजी बोले-अगर आपका मत सही है तो हमारे सिर पर इतने जबे (जूते) पड़ेंगे कि धरती भी नहीं झेल पाएगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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