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चिन्तन इंन्द्रिय-चेतना का / १०१ क्या मिलेगा ? उसका उत्तर होता है— किसने परलोक देखा है ? इतने लोग परलोक की बात करने वाले हैं, क्या किसी ने परलोक देखा है ? और यह जो रति है, काम है, काम के विषय हैं, ये प्रत्यक्ष हैं। क्या प्रत्यक्ष को छोड़कर परोक्ष की बात करना मूर्खता नहीं है ? क्या परोसे हुए भोजन को छोड़कर आने वाले की आशा करना उचित है ? वह केवल इन्द्रिय भोगों के प्रति अपनी सारी आस्था केन्द्रित करेगा। उनसे परे भी कुछ है, इस पर उसका कोई चिंतन नहीं होता ।
यह चिन्तन अस्वाभाविक भी नहीं है। आदमी चौबीस घण्टा इन्द्रिय के संक्रमण से घिरा रहता है, उसका सारा चिन्तन इन्द्रियों की परिधि में सिमट जाता है । वह वर्तमान में, केवल वर्तमान में जीता है। न अतीत का प्रश्न, न भविष्य का प्रश्न । जो सामने है, वही सब कुछ है ।
प्रसंग जंबूकुमार का
जंबूकुमार दीक्षा के लिए प्रस्तुत था और उसकी नवविवाहित पलियां अदीक्षा के लिए। जंबूकुमार की एक पत्नी ने कहा- पतिदेव ! आप दीक्षित होना चाहते हैं सुख पाने के लिए। वर्तमान में जो सुख मिला है उसे छोड़ कर अप्राप्त की आशा करना समझदारी है ? उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए एक उदाहरण प्रस्तुत किया
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एक किसान अपनी ससुराल में गया । ससुराल में ईख के रस के साथ चावल खाए । उसे बड़ा अच्छा लगा। ईख का रस पीया, बड़ा अच्छा लगा, ईख चूसें, अच्छा लगा । उसने पूछा—ये क्या हैं? कहां होते हैं ? ससुराल वालों ने उसे ईख के खेत दिखाए, बीज बोने से लेकर काटने की तक की सारी विधि समझाई। उसने सारी बातें समझ लीं । लौटते समय वह साथ में ईख के बीज ले आया । महीना था भादवे का । उसने घरवालों से कहा- इस सारे बाजरे को उखाड़ दो, इस खेत में ईख बोना है । घरवालों के मना करने पर भी उसने बलपूर्वक खड़ी बाजरी उखड़वा दी और ईख बो दिया । ईख को पूरा पानी चाहिए। पर वहां कहां था पानी ! थोड़े दिन ईख के डंठल खड़े रहे फिर सूखने लगे और सूख गए। वह बहुत पछताया। उसने कहा- मैंने कितनी मूर्खता की, खड़ी फसल को उखाड़ा भविष्य की आशा के लिए । ईख भी नहीं मिली और बाजरा भी चला गया। पत्नी ने कथा का उपसंहार करते हुए कहापतिदेव ! आपको भी वैसा ही पश्चात्ताप करना पड़ेगा, जैसा उस किसान को करना पड़ा था ।
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