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३४ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म हैं । उनको जानने के लिए अनन्त दृष्टियां हैं। प्रत्येक दृष्टि सत्यांश है। सब धर्मों का वर्गीकृत रूप अखण्ड वस्तु और सत्यापन का वर्गीकरण अखण्ड सत्य होता है। ____ अखण्ड वस्तु जानी जा सकती है किन्तु एक शब्द के द्वारा एक समय में कही नहीं जा सकती। मनुष्य जो कुछ कहता है, उसमें वस्तु के किसी एक पहलू का निरूपण होता है । वस्तु के जितने पहलू हैं, उतने ही सत्य हैं, उतने ही द्रष्टा के विचार हैं। जितने विचार हैं उतनी ही अपेक्षाएं हैं। जितनी अपेक्षाएं हैं उतने ही कहने के तरीके हैं। जितने तरीके हैं, उतने ही मतवाद हैं। मतवाद एक केन्द्र-बिन्दु है। उसके चारों ओर विवादसंवाद, संघर्ष-समन्वय, हिंसा और अहिंसा की परिक्रमा लगती है। एक से अनेक के सम्बन्ध जुड़ते हैं, सत्य या असत्य के प्रश्न खड़े होने लगते है। बस, यहीं से विचारों का स्रोत दो धाराओं में बह चलता हैं-अनेकान्त या सत्-एकान्त-दृष्टि-अहिंसा, असत्-एकान्त-दृष्टि-हिंसा।
कोई बात या कोई शब्द सही है या गलत, इसकी परख करने के लिए एक दृष्टि की अनेक धाराएं चाहिए। वक्ता ने जो शब्द कहा, तब वह किस अवस्था में था? उसके आस-पास की परिस्थितियां कैसी थीं। उसका शब्द किस शब्दशक्ति से अन्वित था? विवक्षा में किसका प्राधान्य था? उसका उद्देश्य क्या था? वह किस साध्य को लिए चलता था? उसकी अन्य निरूपण पद्धतियां कैसी थीं? तत्कालीन सामयिक स्थितियां कैसी थीं? आदि-आदि अनेक छोटे-बड़े बाट मिलकर एक-एक शब्द को सत्य की तराजू में तोलते है।
सत्य जितना उपादेय है उतना ही जटिल और छिपा हुआ है। उसे प्रकाश में लाने का एकमात्र साधन है-शब्द। उसके सहारे सत्य का आदान-प्रदान होता है। शब्द अपने आप में सत्य या असत्य कुछ भी नहीं है। वक्ता की प्रवृत्ति से वह सत्य या असत्य से जुड़ता है। रात' एक शब्द है. वह अपने आप में सही या झूठ कुछ भी नहीं। वक्ता अगर रात को रात कहे तो वह शब्द सत्य है और अगर वह दिन को रात कहे तो वही शब्द असत्य हो जाता है। शब्द की ऐसी स्थिति है, तब कैसे कोई व्यक्ति केवल उसी के सहारे को सत्य को ग्रहण कर सकता है।
इसलिए भगवान महावीर ने बताया- 'प्रत्येक धर्म (वस्त्वंश) को
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