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१६० / जैन दर्शन के मूल सूत्र
में गौरव का अनुभव करता है। यह अपरिग्रह का स्वर शक्तिशाली बन गया। महावीर का अपरिग्रह का स्वर सैद्धान्तिक या दार्शनिक था, वह आज प्रतिष्ठित हो गया।
ये पांच सिद्धान्त आज मैंने प्रस्तुत किए। प्रश्न होता है कि क्या मैं आज के युग की भाषा में बोल रहा हूं या जैन धर्म की भाषा में बोल रहा हूं? एक सामान्य प्रबुद्ध चिन्तक यह सोचेगा कि यह तो आज मैंने युग की जो अच्छी-अच्छी बातें थीं, उन्हीं को दुहरा दिया। किन्तु आज मैंने युग की बात की नहीं, केवल जैन धर्म की बातों को कहा है। साधार और सप्रमाण हैं, मनमानी बातें नहीं हैं। उनके पुष्ट आधार हैं, किन्तु जो जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त हैं, वे सिद्धान्त केवल जैन धर्म तक सीमित नहीं रहे, वे सिद्धान्त आज के युग के सिद्धान्त बन गए। युग-सिद्धान्त जो बन जाता है, वह बहुत व्यापक हो जाता है।
मुझे एक घटना याद आ रही है। जोधपुर में पूज्य गुरुदेव से पूछा गया कि जैन धर्म के सिद्धान्त इतने अच्छे, फिर जैनों की संख्या इतनी कम क्यों। गुरुदेव ने बहुत सहजभाव से उत्तर दिया-मैं जैनों की संख्या कम नहीं मानता। उत्तर बहुत आश्चर्य पैदा करने वाला था। उसे स्पष्ट करते हुए गुरुदेव ने कहा-जो जन्मना जैन हैं, वे जैन कितने हैं, मैं नहीं कह सकता, किन्तु जिन लोगों का विश्वास अहिंसा, अपरिग्रह, अनाग्रह, अनेकान्त में है, वे सब जैन हैं। मैं उन सबको जैन मानता हूं, इसलिए जैनों की संख्या कम नहीं है।
चीनी दूध में मिल गई। चीनी का अस्तित्व अलग से दिखाई नहीं देता, किन्तु पूरा दूध चीनी से प्रभावित हो गया, पूरे दूध में मिठास आ गई। जैन धर्म अलग से चाहे दिखाई दे या न दे, किन्तु जैन धर्म के चिन्तन ने युगचिन्तन को इतना प्रभावित किया कि आज जैन धर्म और दर्शन का विश्लेषण करूं या युगचिन्तन को बताऊं, दोनों में इतना सामीप्य है, इतनी निकटता है कि वे दो बिन्दु जैसे लगते नहीं, एक बिन्दु पर एकमेक हो जाते हैं।
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