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________________ जैन धर्म की देन / १५९ रहेंगे तो गति नहीं हो सकती। हम चल नहीं सकते। यह है अनेकान्त का सिद्धान्त । अनेकान्त का मतलब, जितने पदार्थ, जितने वस्तु के धर्म, तुम समझना चाहो, कहना चाहो, एक को मुख्य बना दो, दूसरे को गौण बना दो, फिर जिसको मुख्य बनाया, उसे गौण बना दो और जिसे गौण बनाया था, उसे मुख्य बना दो तो तुम सत्य को पकड़ पाओगे। अगर सबको मुख्य बना दिया या सबको गौण बना दिया तो सत्य को नहीं पकड़ पाओगे, आग्रह हाथ आएगा। नवनीत नहीं मिलेगा, सचाई नहीं मिलेगी। इस सिद्धान्त के आधार पर सहअस्तित्व का विकास हुआ। वह सहअस्तित्व आज का युग - चिन्तन है। यह लोकतंत्र आज का युग-चिन्तन है । संयुक्त राष्ट्रसंघ इसलिए बना कि सहअस्तित्व का सिद्धान्त मान्य हो गया। यानी एक मंच पर साम्यवादी और पूंजीवादी राष्ट्र बैठते हैं और विश्व की समस्याओं का समाधान करते हैं। यह स्याद्वाद के सिद्धान्त का, सहअस्तित्व के सिद्धान्त का क्रियान्वयन है । सापेक्षता का सिद्धान्त, समन्वय का सिद्धान्त - ये सारे अनेकान्त के प्रतिफलन हैं । ऐसा लगता है कि अनेकान्त को सैद्धान्तिक रूप भगवान महावीर के समय में मिला और उसे व्यावहारिक रूप समग्रता के साथ उनके पचीस सौ वर्ष के बाद आज मिला । जैन धर्म का पांचवा सिद्धान्त है अपरिग्रह | वर्तमान युग - चिन्तन अपरिग्रह के पक्ष में है । बात विरोधी-सी लगेगी। पर विरोधाभास नहीं है । यद्यपि आज सम्पदा बहुत बढ़ी है। परिग्रह बहुत बढ़ा है। पर मार्क्स के बाद, साम्यवादी प्रणाली के विकसित होने के बाद, मुख्य स्वर अपरिग्रह का है। यानी व्यक्तिगत स्वामित्व को छोड़ने का है, न कि व्यक्तिगत स्वामित्व को बढ़ाने का है। जो लोग पूंजीवाद में रह रहे हैं, जी रहे हैं, वहां भी स्वर दूसरे प्रकार का है। आर्थिक समानता का स्वर है और वह ऐसा शक्तिशाली स्वर बन गया कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। आज कुछ राज्यों में एकाधिपत्य है, अधिनायकवाद है । पर वे प्रजातंत्र के स्वर को नहीं छोड़ सकते। जो अधिनायकवादी हैं, वे भी अपने आपको प्रजातंत्रीय प्रणाली का कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं। वैसे ही आज का पूंजीवादी वर्ग भी आर्थिक समानता की बात करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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