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________________ १२८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र कीचड़ था। उसने कीचड़ में घास का पूला डाला। वह कुछ गीला हो गया। उसने सोचा, इसको मुंह में निचोड़कर प्यास बुझाऊं। जिस आदमी की प्यास समुद्र, सरोवर, नदी-नालों और कुओं से नहीं बुझी, क्या उसकी प्यास उस घास के पूले से टपकने वाली दस-बीस बूंदों से बुझ पाएगी? कभी सम्भव नहीं है। __इसी प्रकार मिथ्या दृष्टिकोण मनुष्य में ऐसी प्यास जगा देता है कि तीनों लोक के सारे पदार्थ उपलब्ध हो जाने पर भी वह बुझती नहीं। वह अमिट प्यास बन जाती है। वह प्यास तीसरी समस्या को उत्पन्न कर देती है। वह है उन्माद, पागलपन, नशा। तृष्णा प्रमाद पैदा करती है। प्रमाद उन्माद है, पागलपन है। इसके प्रभाव से आदमी जानते हुए भी नहीं जान पाता, देखते हुए भी नहीं देख पाता, सुनते हुए भी नहीं सुन पाता। विचित्र स्थिति का निर्माण हो जाता है। __ प्रमाद आवेश को जन्म देता है, कषाय को जन्म देता है। प्रमाद उन्माद है। इसमें आदमी पागल हो जाता है और फिर बात-बात में क्रोध करना, अहंकार आना, कपट और ठगी करना, घृणा और ईर्ष्या, माया और वंचना करना-ये सारे आवेग उत्पन्न होते हैं। आवेग चंचलता पैदा करता है। यह भी एक समस्या है। मन, वाणी और शरीर की चंचलता स्वयं में एक बड़ी समस्या है। चंचलता में स्वयं को देखने की बात समाप्त हो जाती है। जब व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पाता, तब हजारों-हजारों समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। इनका कहीं अंत नहीं आता। गरीबी की समस्या हो, मकान और कपड़े की समस्या हो या अन्यान्य समस्याएं हों, वे सारी की सारी गौण समस्याएं हैं, मूल समस्या नहीं है। ये पत्तों की समस्याएं हैं, जड़ की नहीं हैं 1 पत्तों का क्या? पतझड़ आता है, सारे पत्ते झड़ जाते हैं। वसन्त आता है और सारे पत्ते आ जाते हैं, वृक्ष हरा-भरा हो जाता है। यह मूल समस्या नहीं है। मूल समस्या यह है कि व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पा रहा है। उसके पीछे ये पांच कारण या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003070
Book TitleJain Darshan ke Mul Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2001
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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