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१२६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र
आपको उत्तरदायी मानना। बहत लोग अपने कार्य के लिए स्वयं को उत्तरदायी नहीं मानते, वे परिस्थिति या परम सत्ता को उत्तरदायी बतलाकर स्वयं अपने उत्तरदायित्व से बचने का प्रयत्न करते हैं। 'मैं क्या करूं परिस्थिति ही ऐसी थी इसलिए यह कार्य हो गया। मैं क्या करूं, परमात्मा की ऐसी ही मर्जी थी इसलिए ऐसा हो गया।' परमात्मा की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता तो फिर कर्तृत्व को मैं अपने पर कैसे ओढ़ सकता हूं। इस परिस्थिति या परम सन्ता की परतंत्रता ने मनुष्य की स्वतन्त्रता या उत्तरदायित्व पर आवरण डाल रखा है। जब तक मनुष्य अपने कर्म के लिए अपने उत्तरदायित्व का अनुभव नहीं करता, उसकी स्वतन्त्र चेतना का विकास नहीं हो सकता। स्वतन्त्र चेतना का विकास होना आज की बहुत बड़ी अपेक्षा है। इसके अभाव में विकास में अवरोध बनने वाले अनेक मानसिक भ्रम पैदा हुए हैं। उन भ्रान्तियों में जीने वाला व्यक्ति अपनी यान्त्रिक चेतना से मुक्त नहीं हो सकता।
कर्म सर्वेसर्वा नहीं है
कर्म का सिद्धान्त धर्म की वैज्ञानिकता का स्वयंभू साक्ष्य है। बहुत सारे धर्म कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं किन्तु उसकी एकांगिता को स्वीकार कर मनुष्य को यंत्र बना देते हैं। वस्तुत: यह इष्ट नहीं है। कर्म मनुष्य की चेतना को प्रभावित करने वाला एक तत्त्व है । वह सर्वेसर्वा नहीं है। काल, स्वभाव, पुरुषार्थ, नियति आदि अनेक तत्त्व हैं जो मनुष्य की चेतना को प्रभावित करते हैं। चेतना केवल प्रभावित ही नहीं है, अप्रभावित भी है। यदि केवल प्रभावित होने की बात हो तो उसका अपना अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। उसमें अप्रभावित रहने की क्षमता है इसीलिए वह अपने अस्तित्व को बनाए रख सकती है।
इस समन्वित क्रिया के द्वारा मनुष्य के बहु-आयामी व्यक्तित्व और उसके विविध कार्यों की व्याख्या की जा सकती है। व्याख्या का यह सर्वांगीण और समन्वित दृष्टिकोण ही धर्म की वैज्ञानिकता है। एकांगी दष्टिकोण धर्म को अवैज्ञानिक बना देता है। सापेक्षता और समन्वय का दृष्टिकोण वर्तमान चिन्तन की एक पवित्र धारा है। उसके द्वारा सत्य के महासागर की अतल गहराइयों में निमज्जन किया जा सकता है।
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