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जीवन स्वरूप और लक्षण / १२५
प्रत्येक देश और काल में प्रत्येक व्यक्ति को सत्य की खोज का अधिकार प्राप्त है।
सत्य के दो पहलू
एक व्यक्ति केवली या सर्वज्ञ हो जाता है। वह सत्य को समग्रता से जान लेता है, देख लेता है। फिर भी सत्य की खोज का द्वार बन्द नहीं होता। केवली सत्य को जान सकता है किन्तु उसके रूप को वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता। हमारा शब्दकोश सीमित है। मनुष्य की बोलने की शक्ति सीमित है। आयुष्य की शक्ति भी सीमित है। इसलिए कोई भी व्यक्ति समग्र सत्य को कभी भी कह नहीं सकता। समग्र सत्य कहा नहीं जा सकता इसीलिए सत्य की खोज का द्वार सदा खुला रहता है।
हमारा जगत परिवर्तनशील है। समाज भी परिवर्तनशील है। जैन दर्शन परिवर्तन और अपरिवर्तन- दोनों को सत्य के दो पहल मानता है। अपरिवर्तन के बिना परिवर्तन की और परिवर्तन के बिना अपरिवर्तन या शाश्वत की व्याख्या करने वाला दर्शन वैज्ञानिक नहीं हो सकता। अनेकान्त दृष्टि में द्रव्य परिवर्तन और अपरिवर्तन-दोनों का समन्वित रूप है।
जड़ का भी स्वतन्त्र अस्तित्व है
- आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा- 'प्रभो! अन्यतीथिक आपके अतिशयों को अस्वीकार कर सकते हैं किन्तु यथार्थवाद को कैसे अस्वीकार करेंगे।' यथार्थवादी दृष्टिकोण में जड़ की सत्ता अस्वीकृत नहीं होती। जैन दर्शन केवल चैतन्य की सत्ता को ही स्वीकार नहीं करता, उसमें जड़ की सत्ता भी स्वीकृत है । चेतन और जड़-दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। जड़ तत्त्व प्रत्यक्ष है। उसे अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। उसे मानस सृष्टि मानना भी एक जटिल प्रक्रिया है। इसलिए जड़ का स्वतन्त्र अस्तित्व युक्ति-संगत और नैसर्गिक है।
स्वतन्त्र कर्तृत्व का स्वीकार
वैज्ञानिक धर्म की एक कसौटी है-अपने कार्य के लिए अपने
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