________________
जीव चैतन्य सम्बन्धवाद / ११९
तथ्य है।
__ आत्मा की व्यापकता और एकात्मता स्वीकार करने वालों के सामने यह समस्या रहेगी कि आत्मा शुद्ध है, ब्रह्म है तो इतनी बुराइयां, इतने विकार क्यों आए? आत्मा एक है तो यह कैसे सम्भव होगा? इस समस्या को सुलझाने के लिए एक पृथक् शब्द गढ़ना पड़ा- जीवात्मा।
जितने भी एकात्मवादी दर्शन हैं वे प्रतिबिम्बवाद का निरूपण करते हैं । उपनिषद् का प्रसिद्ध सूक्त है ‘एको घट: नानारूपेण प्रतिबिंबित:' एक घट नाना रूप में प्रतिबिंबित है। सूत्रकृतांग सूत्र में इसी पक्ष को उद्धृत करते हुए कहा गया है
जैसे एक मृत्पिण्ड नाना रूपों में दिखाई देता है वैसे ही एक ही ज्ञान पिण्ड नाना रूपों में दिखाई देता है।
यह एकात्मवाद का समर्थन सूत्र है। उन्होंने इस सदंर्भ को अपने ढंग से प्रस्तुत किया है पर जैन दर्शन को उसकी यथार्थता पर संदेह है।
यह मान भी लें कि एक आत्मा के सारे प्रतिबिम्ब है। जो क्रिया बिम्ब में नहीं होगी, वह प्रतिबिम्ब में कैसे प्रस्फुटित होगी? सूरज का प्रतिबिम्ब पानी में पड़ रहा है। सूरज पर बादल नहीं आया तो पानी में सूरज पर बादल कैसे आएगा? बिम्ब में जैसी क्रिया होगी वैसी प्रतिबिम्ब में होगी। नानात्मवाद तो प्रत्यक्ष है। अलग-अलग व्यक्ति हैं-इसे नकारा नहीं जा सकता। नानात्म को यदि प्रतिबिम्ब स्वीकार करें तो जो घटना बिम्ब में घटित होती है वह प्रतिबिम्ब में कैसे नहीं होगी? यदि बिम्ब में अच्छाइयां बुराइयां नहीं है तो वे प्रतिबिम्ब में कहां से आएगी? कैसे आएंगी?
जैन दर्शन प्रत्येक आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करता है। प्रत्येक आत्मा का पृथक् सत्व है। जैन दर्शन में प्रतिबिम्ब या छाया की कल्पना का अवकाश ही नहीं है। जीव और जीवात्मा एक ही है। दोनों में कोई भेद नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन में जीव और जीवात्मा-- इन दो शब्दों का प्रयोग अवश्य हुआ है। किन्तु इनके अर्थ में वैषम्य नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org