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स्वस्थ समाज रचना में हमारी सहभागिता ८५
व्यक्तियों का आहार शुद्ध और सात्विक होता है, उनका विचार और व्यवहार भी सात्विक होता है । तामसिक आहार करने वालों के विचार स्वाभाविक रूप से क्रूर होते हैं । इसी प्रकार नशा भी आदमी को गलत राह पर ले जाता है। थोड़े से शुरू होने वाली नशे की मात्रा बड़े-बड़े अपराधों तक ही सीमित नहीं रहती है अपितु आत्महत्या तथा नृशंस हत्याओं की मंजिल तक पहुंच जाती है। इसीलिए नशा आज दुनिया की समस्या नम्बर एक बन गई है । इस दृष्टि से सात्विक आहार तथा व्यसनमुक्त जीवन स्वस्थ समाज व्यवस्था के प्रमुख अंग है।
सचेतन समाज
स्वस्थ समाज वह होता है जहां अंधविश्वासों तथा अंधरूढ़ियों को आदर नहीं मिलता । आदिम मनुष्य अंधविश्वासों से ग्रस्त था । जब अंधविश्वास परम्परा बन जाते हैं तब अंधरूढ़ियों का रूप ग्रहण कर लेते हैं । स्वस्थ समाज व्यवस्था सचेतन समाज व्यवस्था होती है | वहां किसी बात का मूल्य परम्परा नहीं होती अपितु उसकी गुणवत्ता होती है । रूढ़ियों से मुक्त समाज-व्यवस्था ही स्वस्थ समाज-व्यवस्था हो सकती है ।
स्वस्थ समाज-व्यवस्था में आदमी को विचार की पूरी स्वतन्त्रता रहती है पर इसके साथ-साथ विचारों की सहिष्णुता का भी वही मूल्य होता है। वहां अपनी विचार की स्वतन्त्रता के साथ-साथ दूसरों के विचारों एवं अधिकारों की भी पूर्ण सुरक्षा रहती है ।
ऐसी समाज-व्यवस्था में धन एवं सत्ता का अपने आप विकेन्द्रीकरण हो जाता है । यह ठीक ही कहा गया है
शांति बीन बज सकती तब तक नहीं सुनिश्चित स्वर में स्वर की शुद्ध प्रतिध्वनि जब तक उठे नहीं उर-उर में ।
जब एक-एक व्यक्ति के हृदय में स्वस्थता जागृत होती है तभी स्वस्थ समाज का निर्माण होता है ।
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