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२७. अणुव्रत की अनिवार्यता को नकारा नहीं जा सकता
दो ध्रुव हैं। उत्तरी ध्रुव है संयम और दक्षिणी ध्रुव है आकांक्षा । आकांक्षा सकारात्मक है । जहां आकांक्षा, वहां जीवन । जहां आकांक्षा वहां विकास । जहां आकांक्षा वहां आसक्ति । आकांक्षा की धुरी पर समूची प्रवृत्तियां गतिशील हो रही हैं । संयम नकारात्मक है। जहां संयम, वहां चैतन्य । जहां संयम, वहां सत्य की अनुभूति। जहां संयम, वहां अनासक्ति ।
जीवन जीने के लिए आवश्यक है प्रवृत्ति, विकास और आसक्ति । जीवन को पवित्र बनाने के लिए आवश्यक है— निवृत्ति, चैतन्य की अनभूति, सत्यनिष्ठा और अनासक्ति ।
आकांक्षा : खतरे के विन्दु पर
एक सामाजिक व्यक्ति में आकांक्षा और आसक्ति न हो, यह सम्भव नहीं । उसमें केवल आकांक्षा और आसक्ति हो, उस पर नियन्त्रण करने की क्षमता न हो तो वह अपने लिए और दूसरों के लिए खतरनाक बन जाता है । इस खतरे से सावधान होने का नाम है अणुव्रत । नदी का जलस्तर खतरे के बिन्दु तक पहुंच जाता है तब सब सावधान हो जाते हैं । आकांक्षा एक महानदी है। उसका जलस्तर खतरे के बिन्दु तक पहुंच जाते हैं फिर भी मनुष्य सावधान नहीं होता । उस स्थिति में जन्म लेते हैं अपराध, आतंक, हत्या और अनैतिकता । जो खतरे से सावधान नहीं होते, उन्हें खतरे से सावधान करने का नाम है अणुव्रत आंदोलन |
एक मनुष्य सुख चाहता है, सुविधा चाहता है, भोग चाहता है,
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दूसरा
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