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१५. धर्म समन्वय और वैचारिक स्वतंत्रता
मौलिक अवधारणा
धर्म के मूल तत्त्व समान हैं । उपासना की पद्धतियां भिन्न-भिन्न हो सकती है, धर्म भिन्न-भिन्न नहीं हो सकता । धर्म सत्य है । सत्य दो नहीं हो सकता । वह सबका एक होगा । हिन्दू समाज के सामने वैदिक, जैन और बौद्ध — ये धर्म की तीन मुख्य अवधारणाएं रही हैं। तीनों के अपने संप्रदाय भेद या उपासना भेद हैं पर धर्म की मौलिक अवधारणा में वे एक बिन्दू पर आ जाते हैं । भगवान महावीर ने कहा- 'अप्पणा सच्च मेसेज्जा मेति भूएसु कप्पए' स्वयं सत्य खोजो, सबके साथ मैत्री करो । यही शंकराचार्य ने कहा
मोक्षसाधनसामग्रयां, भक्तिरेव गरीयसी । स्वरूपानुसंधानं, भक्तिरित्यभिधीयते ॥
स्वयं सत्य की खोज करना और अपने स्वरूप का अनुसंधान करना यह वाक्य शब्दों में भिन्न है, तात्पर्यार्थ में भिन्न नहीं है ।
विचार का क्षेत्र
आज का युग तुलनात्मक अध्ययन का युग है । दार्शनिक विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है । फलतः आग्रह के बंधन टूट रहे हैं, भाषा और परिभाषा के आवरण में छिपा हुआ सत्य प्रकट हो रहा है ।
हिन्दू समाज विचार के क्षेत्र में बहुत उदार रहा है । उसने कभी अपना विचार मनवाने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया, तलवार का सहारा नहीं लिया । वह आक्रामक भी नहीं रहा । उसमें जातीय भेद-भाव जैसी अवधारणाएं
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