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आमंत्रण आरोग्य को
नहीं होतीं, भाईचारे का भाव प्रबल होता तो वह विश्व का एक अनुकरणीय समाज होता । आज इस बदलते हुए चिन्तन और बदलती हुई अवधारणाओं के वैज्ञानिक युग में हिन्दू समाज को फिर से नया दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है |
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समन्वय मंच
सांप्रदायिक भेद होना विचार - विकास की प्रक्रिया है । उसे रोका नहीं जा सकता और रोकना भी नहीं चाहिए। समन्वय का दृष्टिकोण होता है तो विचारधारा में भेद हो सकता है, विरोध नहीं । वर्तमान युग ने इस सचाई को समझा है । वैचारिक भेद होते हुए भी विरोध से अविरोध की दिशा में हमारा प्रस्थान हो रहा है, यह सर्वधर्म की दिशा है । समभाव से सद्भाव बढ़ता है और सद्भाव से समभाव बढ़ता है । समभाव और सद्भाव की वृद्धि के लिए एक समन्वय मंच की जरूरत है । विश्व हिन्दू परिषद उसका दायित्व निभा रही है, यह प्रसन्नता की बात है ।
धर्म समन्वय : पांच सूत्र
समभाव या समन्वय के लिए सहिष्णुता अनिवार्य है । उसके अभाव में मतभेद मनभेद में बदल जाता है । आचार्यश्री तुलसी द्वारा प्रस्तुत धर्म समन्वय का पंचसूत्री कार्यक्रम बहुत उपयेगी है—
मंडनात्मक नीति बरती जाए । अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया जाए, दूसरों पर मौखिक या लिखित आक्षेप न किए जाएं । दूसरे के विचारों के प्रति सहिष्णुता रखी जाए ।
दूसरे संप्रदाय के प्रति घृणा एवं तिरस्कार की भावना का प्रचार न किया जाए ।
संप्रदाय परिवर्तन के लिए दबाव न डाला जाए ।
धर्म के मौलिक तथ्य अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को जीवनव्यापी बनाने का सामूहिक प्रयत्न किया जाए ।
समस्या है असहिष्णुता
हिन्दू समाज अनेक संप्रदायों में विभक्त है । यदि उनमें समन्वय का सेतु
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