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आमंत्रण आरोग्य को
बन चुकी है किन्तु इस संक्रमणशील जगत् में इन दीवारों का कोई मूल्य नहीं है। दीवार बनाने वाला बहुत बड़ा आदमी नहीं होता | बड़ा आदमी होता है, जो इन दीवारों को तोड़ गिराता है । वायुयान के युग में इन दीवारों का अर्थ कम हो गया है । पुराने किले और गढ़ अर्थहीन हो गए हैं । मनुष्य ने नई दीवारें, नए किले और नए गढ़ बना लिए हैं | सामाजिक विचारधारा, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक प्रणालियाँ और साम्प्रदायिक कट्टरता की इतनी बड़ी दीवारें खड़ी हो गई हैं कि उन्हें लांघना आकाशमार्ग से भी संभव नहीं है | क्या आज का मनुष्य इन सबका आग्रह छोड़ने को तैयार है ? यदि है तो वे दीवारें अपने आप ढह जाएंगी । यदि उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं है तो समस्याओं का समाधान असंभव है ।
प्रश्न है संवेदनशीलता का ___“मैं सोचता हूं, वैसे ही दूसरा सोचे । मैं करता हूं, वैसे ही दूसरा करे ।' इस आग्रहपूर्ण आदत ने विविधता से होने वाले सौंदर्य को मिटाने का प्रयत्न किया है। अपना मार्ग दूसरों पर थोपने की प्रवृत्ति हमेशा हिंसा को जन्म देती है। आज की जरूरत है विविधता में एकता को खोजना । इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे शेष से सर्वथा पृथक् किया जा सके और ऐसा भी संभव नहीं है कि पांचों अंगुलियों को एक बना दिया जए । पांचों अंगुलियों का आकार भी समान नहीं है और प्रकार भी समान नहीं है फिर भी उनमें परस्पर सहयोग है । प्रश्न पारस्परिक सहयोग का है, संवेदनशीलता का है ।
'जीवो जीवस्य जीवनम्' जीव जीव का जीवन है- इस धारणा ने संवेदनशीलता के रस को सोखा है । बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है- इस मात्स्य न्याय ने आक्रामक वृत्ति को प्रोत्साहन दिया है । 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' इस मान्यता ने सचाई पर पर्दा डाला है । अज्ञान और अविकास की दशा में जीने वाले क्षुद्र जन्तुओं के प्राकृतिक नियमों को बुद्धिमान् मनुष्य अपने पर ओढ़ लेता है, तब समस्या उलझ जाती है ।
पाशविक वृत्ति और बुद्धि का योग
बुद्धि और विवेक चेतना के कारण मनुष्य पशु से काफी ऊंचा उठ चुका है फिर भी उसमें पाशविक मस्तिष्क का अस्तित्व विद्यमान है । मस्तिष्क विज्ञानी
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