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११६ आमंत्रण आरोग्य को
पूरा चित्र चिह्नों से भर गया है । उसने सोचा, बड़ा अनर्थ हो गया ।
दूसरे दिन उसने एक चित्र फिर टांगा, लिख दिया जहां कोई खामी है, सुधार दें। सांझ को जाकर देखा तो चित्र वैसा का वैसा मिला, कोई परिवर्तन नहीं था उसमें ।
हम कमियां बहुत निकाल सकते हैं, त्रुटियों की ओर हमारा ध्यान जा सकता है, बिन्दु लगा सकते हैं, किन्तु जहां सुधारने वाली बात आती है ? वहां कुछ भी नहीं होता । हम केवल खामी की बात न पकड़े, कुछ सृजन करें ।
परिवर्तन की प्रक्रिया
दो शब्द हैं— थियोरेटिकल और प्रेक्टिकल । सैद्धान्तिक और प्रयोगात्मक । प्रत्येक क्षेत्र में ये दोनों अपेक्षित हैं । धर्म का क्षेत्र हो या शिक्षा का क्षेत्र, हम सैद्धान्तिक बात को भी समझें और उसका प्रयोगात्मक पक्ष भी समझें । क्या आदत का बदलना और नयी आस्था का पैदा करना इसका अपवाद हो सकता है ? आस्था को पैदा करने में भी हमें दोनों बातों का सहारा लेना पड़ेगा। पहला पक्ष है सैद्धान्तिक, जिसमें दो बातें आती हैं— श्रवण और मनन । सिद्धान्त को जानना और उस पर मनन करना, उसकी अनुप्रेक्षा करना, उसका अनुचिन्तन करना ।
दूसरी बात है-- प्रयोगात्मक, निदिध्यासन, अभ्यास करना । सुनो, ज्ञान करो, विवेक करो और प्रत्याख्यान करो । जो छोड़ने योग्य है, उसका प्रत्याख्यान करो और जो उपादेय है, उसका अभ्यास करो । यह एक पूरी प्रक्रिया हैपरिवर्तन की । इस प्रक्रिया को अपनाए बिना आस्था को बदलने की बात कभी संभव नहीं बनेगी।
स्वस्थ समाज रचना : महत्त्वपूर्ण आधार
अहिंसा का विकास स्वस्थ समाज की रचना का एक महत्त्वपूर्ण आधार है । उसका महत्त्वपूर्ण प्रयोग है- श्रवण, मनन और निदिध्यासन । जब तक शिक्षा के साथ या धर्म की आराधना के साथ ज्ञान और क्रिया- दोनों का योग नहीं होगा तब तक नहीं लगता कि इस समस्या का समाधान हो जाए। इस योग के बिना न तो धार्मिक अच्छा धार्मिक बन सकता है और न विद्यार्थी अच्छा विद्यार्थी बन सकता है ।
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