SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा का विकास ११५ है जो तुम स्वयं नहीं चाहते, दूसरों के लिए वैसा मत करो। तुम्हें सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है तो दूसरों को भी तुम दुःख मत दो, कष्ट मत दो, मत सताओ । यह सिद्धान्त अहिंसा के लिए प्रेरित करता है । ये सिद्धान्त और ये घटनाएं हमारे मस्तिष्क को झंकृत करती हैं, हमें अच्छी लगती हैं, किन्तु हमारा बहुत साथ नहीं । एक बार सुना, मन में प्रेरणा जागी और सामने परिस्थिति आई, घुटने टेक दिए, अहिंसा को विस्मृत कर बैठे । समस्या यह है कि आदमी केवल श्रवण- प्रिय है । प्राचीन भाषा में श्रवण और आज की भाषा में पठनदोनों एक ही बात है । पुराने जमाने में पढ़ने की स्थिति नहीं थी, कोरा सुना जाता था गुरु कहता और शिष्य सुन लेता । लिखना नहीं होता था, इसलिए पढ़ने की बात नहीं थी । पुराने जमाने की सुनना और आज का पढ़ना — दोनों सम हैं । रचनात्मक परिवर्तन आए _________ श्रवण की अगली भूमिका है- - मनन | श्रवण और पठन- दोनों स्थितियों में जितना श्रवण होता है, उसका बीस प्रतिशत भी मनन नहीं होता, दस प्रतिशत भी नहीं होता । तीसरी भूमिका है निदिध्यासन । उससे तो आज मुक्ति ही मिल गई है । इन तीनों का योग ही यथार्थ स्थिति तक पहुंचा सकता है । जीवन विज्ञान की प्रक्रिया में इस फार्मूले पर ध्यान दिया गया कि अच्छे सिद्धान्त को जानना, उस पर मनन करना यानी उसकी अनुप्रेक्षा करना और उसका अनुशीलन करना, निदिध्यासन करना, ये तीनों बातें होती हैं तब किसी नयी आस्था का निर्माण होता है । केवल इस स्थिति को बदलना है । ज्ञान और आचरण की जो दूरी है वह तब तक नहीं मिट सकती जब तक ये तीनों बातें नहीं आतीं । इन तीनों का समन्वय हुए बिना वह परिवर्तन नहीं किया जा सकता। हम खामी तो बहुत निकाल सकते हैं । शिक्षा प्रणाली के बारे में अनेक खामियां निकाली गईं। आज से नहीं, स्वतंत्र भारत के आदिकाल से ही यह कथन चल रहा है कि हमारी शिक्षा प्रणाली अच्छी नहीं है किन्तु उसमें क्या सुधार होना चाहिए, क्या रचनात्मक परिवर्तन होना चाहिए, यह बहुत कम सामने आया । सृजन का सूत्र सीखें एक चित्रकार ने बाजार में अपना चित्र टांगकर नीचे लिख दिया — इसे देखें और जहां-जहां कमी हो, वहां चिह्न लगा दें । सायंकाल चित्रकर ने देखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003069
Book TitleAmantran Arogya ko
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy