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________________ अहिंसा की आस्था १०५ अपने संस्कार हैं । हम परिवर्तन की, बदलने की बात सोचते हैं किन्तु इस बात से अनभिज्ञ नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने कर्मजनित संस्कार होते हैं । यह कोई जादू का खेल नहीं है कि थोड़ा-सा कुछ किया और सबके सब बदल गए । ऐसा कोई जादू का डंडा नहीं है कि घुमाया और सब कुछ बदल गया । हिंसा के अपने-अपने संस्कार हैं । एक व्यक्ति में हिंसा के तीव्र संस्कार होते हैं, दूसरे व्यक्ति में हिंसा के संस्कार कम होते हैं । संस्कारों में तारतम्य है और इतना तारतम्य है कि हम सोच ही नहीं सकते । प्रत्येक व्यक्ति की अपनीअपनी योग्यता का तारतम्य है । हम ऐसा तो नहीं कर सकते कि एक राजकीय अधिकारी या राष्ट्रपति का अध्यादेश निकाला और वह लागू कर दिया । हमें इस सचाई को मानकर चलना पड़ेगा कि यह एक वैयक्तिक विशेषता है । अपनेअपने संस्कार हैं इसलिए सबसे हम यह आशा नहीं कर सकते कि सबमें यह आस्था उत्पन्न हो जाएगी । फिर भी हम निराश न हों। हमारी अपनी आस्था यह होनी चाहिए कि प्रयोग के द्वारा, प्रयत्न के द्वारा, अभ्यास के द्वारा - संस्कार को भी परिष्कृत किया जा सकता है । आस्था के बीज बोएं हम सर्वथा परतंत्र नहीं है । संस्कार हैं, यह हम स्वीकार करें और संस्कार हमें संचलित कर रहा है, इसे भी हम अस्वीकार नहीं करें किन्तु हम यह भी स्वीकार करें- हम केवल परतंत्र नहीं हैं, संस्कार की कठपुतली नहीं है । हम प्रयत्न के द्वारा, अभ्यास के द्वारा संस्कार को बदल सकते हैं, उसमें परिष्कार ला सकते हैं । यह क्षमता भी हमारे भीतर है । अपेक्षा हैएक नये संकल्प व नयी आस्था का निर्माण हो और वह बचपन से हो, शिक्षा के क्षेत्र में हो, धर्म के क्षेत्र में हो और अध्यापक या धर्मगुरु के द्वारा हो । मुझे लगता है कि आज दो ही स्थान ऐसे हैं जहां से कुछ आशा की जा सकती है। एक हैधर्म का क्षेत्र और दूसरा है शिक्षा का क्षेत्र । इसके अतिरिक्त तीसरा क्षेत्र कोई दिखाई नहीं दे रहा है । किन्तु धर्म के क्षेत्र से भी आज अधिक मूल्यवान् बन गया है शिक्षा का क्षेत्र और इस दृष्टि से आज का विद्यार्थी जितना शिक्षा से जुड़ा हुआ रहता है उतना धर्म से नहीं । पहले घर के वातावरण में माता-पिता बच्चे को धर्म का पाठ पढ़ाते थे पर आज वह भी छूट गया है । इसलिए यह चिन्तन किया गया शिक्षा के क्षेत्र में ही यदि आस्था के कुछ बीज बोने की बात सोची जाए तो शायद सामाजिक मूल्यों के विकास की बात आगे बढ़ सकर्त है, उसका सुपरिणाम आ सकता है । ―― Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003069
Book TitleAmantran Arogya ko
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Food
File Size9 MB
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