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________________ धर्म से आजीविका : इच्छा-परिमाण आर्थिक परिस्थिति द्वारा आवश्यकता का निर्धारण गरीब व्यक्ति की आवश्यकताएं सीमित होती हैं। वह केवल जीवन-रक्षक आवश्यकताओं को ही पूर्ण कर पाता है । धनी व्यक्ति की आवश्यकताएं उससे बहुत अधिक होती हैं। वह केवल जीवन-रक्षक आवश्यकताओं को ही पूर्ण नहीं करता, विलासितायुक्त आवश्यकताओं को भी पूर्ण करता है । धार्मिक भावना के द्वारा आवश्यकता का निर्धारण धार्मिक व्यक्ति की आवश्यकताएं नैतिक दृष्टि से प्रभावित होती हैं। वह जिन नैतिक आदर्शों को मानता है, उन्हीं के आधार पर अपनी आवश्यकताओं का निर्माण करता है । उसकी आवश्यकताएं बहुत कम और संतुलित होती हैं । किन्तु भौतिक मनोवृत्ति रखने वाले व्यक्ति की आवश्यकताएं उसकी तुलना में बहुत अधिक और बहुत प्रकार की होती हैं । लाभ : लोभ आवश्यकता का गढ़ा इतना गहरा है कि उसे कभी भरा नहीं जा सकता । इस सत्य की स्वीकृति धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र - दोनों ने की है। भगवान् महावीर ने कहा— ' लाभ से लोभ बढ़ता है। जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है ।' एक आवश्यकता पूर्ण होती है तो दूसरी नई आवश्यकता जन्म ले लेती है । आवश्यकता की इस विशेषता के आधार पर अशांति का नियम निश्चित किया गया। आवश्यकता की असीमितता के कारण मनुष्य की शांति भंग होती है I अर्थशास्त्र में भी आवश्यकता की अपूरणीयता प्रतिपादित है। डॉ० मार्शल ने लिखा है— 'मनुष्य की आवश्यकताएं और इच्छाएं असंख्य और अनेक प्रकार की होती हैं ।" यदि मनुष्य एक आवश्यकता को पूर्ण करता है तो दूसरी नई आवश्यकता सामने खड़ी हो जाती है । वह जीवन पर्यन्त अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता । अर्थशास्त्रियों ने आवश्यकता की इस विशेषता के आधार पर 'प्रगति का नियम' (Law of Progress) स्थापित किया। उनका मत है कि असीमित आवश्यकताओं के कारण ही नये-नये आविष्कार होते हैं। फलस्वरूप समाज की आर्थिक प्रगति होती है । 1. Dr. Alfred Marshall - Principles of Economics P. 73 ९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003067
Book TitleMahavira ka Arthashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2007
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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