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________________ महावीर का अर्थशास्त्र सारी दुनिया पर अपना एकाधिकार जमा पाता है । विकसित राष्ट्रों की इस अंधाधुंध दौड़ से छोटे और अविकसित राष्ट्र भयभीत हैं। उनका शोषण भी हो रहा है और उनके अधिकारों का सीमाकरण भी हो रहा है । विकसित राष्ट्रों का अधिकार व्यापक बन रहा है और छोटे राष्ट्रों का अधिकार सीमित हो रहा है । वे एक प्रकार से निरन्तर उनके कब्जे में आते जा रहे हैं। स्वतन्त्रता का भौगोलिक और राजनीतिक अपहरण हुए बिना ही वे गुलाम बनते जा रहे हैं। स्वाभाविक सोच इस सारी समस्या के सन्दर्भ में यह सोच स्वाभाविक थी कि कोई जागतिक अर्थव्यवस्था होनी चाहिए, जिससे शक्तिशाली राष्ट्र छोटे राष्ट्रों का शोषण न कर सकें, उनकी स्वतन्त्रता को छीन न सकें, उन पर अपना प्रभुत्व स्थापित न कर सकें और पर्यावरण को प्रदूषित भी न करें । इस समस्या ने एक नया प्रश्न उपस्थित कर दिया। आज का आदमी सोचने के लिए विवश है। पश्चिम के अनेक विचारक इस बारे में बहुत चिंतन कर रहे हैं।' 'टु हैव ओर टु बी' के लेखक ने इस बारे में बहुत चिंतन किया। 'थर्ड वेव, द न्यू वर्ल्ड आर्डर', 'अर्थ इन बेलेंस' आदि आदि के लेखक इस बात से चिन्तित है कि अगर जागतिक अर्थनीति का विकास नहीं किया गया तो भविष्य की भयावह स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। साम्यवादी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गयी, पूंजीवादी, अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने की स्थिति में है। केनिज ने जो बात कही, वह अच्छी लगी किन्तु उसमें इस तथ्य पर विचार नहीं किया गया-संसाधन तो सीमित हैं, उनका असीम उपयोग कैसे होगा? यदि संसाधन असीम होते, रा-मैटेरियल असीम होते तो शायद उद्योग बड़े पैमाने पर चल सकते थे। संसाधनों की सीमा है, इसलिए यह संभव नहीं है। यही कारण है कि पूंजीवाद भी अब लड़खड़ा रहा है और नयी अर्थव्यवस्था की अपेक्षा सामने आ रही है। समस्या यह है-आज हम केवल ग्राम व्यवस्था, ग्रामोद्योग जैसी प्रणालियों पर चलें, ऐसा संभव नहीं लगता। केनिज ने ठीक ही कहा था-'अब इतना आगे बढ़ गए हैं कि पीछे लौटना संभव नहीं है' और जिस प्रकार आबादी बढ़ रही है, उसमें तो बिल्कुल ही संभव नहीं लगता । आज तो अनेकान्त की दृष्टि से कुछ सत्यांश मिल जाएं, इस दिशा में सोचें और यह देखें उनका समन्वय कैसे हो? हम कैसे एक मंच पर महावीर, गांधी, मार्क्स और केनिज को ला सकें? इस दिशा में नया सोच और नया चिंतन आवश्यक लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003067
Book TitleMahavira ka Arthashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2007
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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