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आशीर्वचन
ईस्वी सन् १६८७, अमेरिका का होनोलूलू शहर । हवाई विश्वविद्यालय शान्ति संस्थान एवं डे वोन सा बौद्ध मंदिर के संयुक्त तत्वावधान में संगोष्ठी का आयोजन । संगोष्ठी का विषय था- 'बौद्ध परिप्रेक्ष्य में शान्ति ।' पन्द्रह देशों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति । हवाई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. ग्लेन डी. पेज के विशेष आमंत्रण पर हमारे प्रतिनिधियों का एक दल वहां पहुंचा। संगोष्ठी में एक प्रश्न आया कि अपरिग्रह के बारे में महावीर ने कुछ कहा हो, ऐसा कोई • उल्लेख नहीं मिलता। इस सन्दर्भ में महावीर की क्या अवधारणा रही है ? वहाँ उपस्थित विद्वानों में अधिसंख्य बौद्ध विद्वान् थे । संभवतः महावीर के दर्शन से वे पूरे परिचित नहीं थे। उस समय हमारे एक प्रतिनिधि जैन तत्वचर्चा विशारद श्री मोतीलाल एच. रांका खड़े होकर बोले- 'महावीर ने अपरिग्रह के बारे में बहुत कुछ कहा है। उनका एक दृष्टिकोण यह रहा है - ' असंविभागी न हु तस्स मोक्खो-जो अर्थ का संविभाग नहीं करता, विसर्जन नहीं करता, वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता ।'
इस एक सूत्र से बौद्ध विद्वान् बहुत संतुष्ट हुए। सौका विश्वविद्यालय टोक्यो (जापान) के जो प्रतिनिधि वहाँ उपस्थित थे, वे हमारे प्रतिनिधि दल को विशेष आग्रह के साथ जापान ले गए और वहाँ अनेक गोष्ठियों में जैन दर्शन के सम्बन्ध में अनेक विचार सुने। मैंने जब से यह बात सुनी, मन में आया कि परिग्रह और अपरिग्रह के विषय में महावीर की अवधारणा पर तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिए। इस वर्ष अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान और जीवनविज्ञान पर इक्कीस दिवसीय प्रवचनमाला के बाद आचार्य महाप्रज्ञजी से कहा- महावीर के दर्शन पर अर्थशास्त्रीय दृष्टि से भी एक प्रवचनमाला का आयोजन किया जाए।
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संसार में अनेक अर्थशास्त्री हैं । वे अपनी दृष्टि से अर्थशास्त्रीय अवधारणाओं को व्यापारी वर्ग और उपभोक्ता वर्ग तक पहुँचा रहे हैं । अर्थ के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है । कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि अर्थ मनुष्य के जीवन से भी अधिक मूल्यवान् बन रहा है। अर्थ का अर्जन, संग्रह संरक्षण और भोग— यह चतुष्टयी सन्ताप का कारण बन रही है। ऐसी स्थिति में महावीर की विचारधारा कुछ अंशों में भी त्राण बन सकी तो एक बड़ी उपलब्धि हो जायेगी। इस दृष्टि से प्रति
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