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________________ ५४ एक व्रत है 'द्रव्य पारमाण' । खाद्य वस्तुओं का सीमा करना । आर्थिक विषमता का समाधान सूत्र महावीर का अर्थशास्त्र इन सब वस्तुओं का सीमाकरण है महावीर की सूची में । आज का सम्पन्न समाज यदि उस काल के व्रती समाज का इन सारी वस्तुओं के उपभोग के अनुकरण करे तो शायद अपने आप आर्थिक विषमता की समस्या हल हो जाएगी। अकेले आनन्द श्रावक ने ही इसका पालन नहीं किया, पांच लाख व्यक्तियों ने इस सूची का जीवन भर के लिए अनुकरण किया। अगर आज पांच लाख लोगों का वैसा ही एक कम्यून बन जाए तो सारी दुनिया के लिए एक अनुकरणीय बात होगी । पर्यावरण की समस्या, गरीबी की समस्या, उपभोग की समस्या और उत्पादन की समस्या को एक सही और सटीक समाधान मिल जाएगा । चौदह नियम आजीवन अनुकरणीय सूची के अतिरिक्त एक सूची वर्तमान की, आज की बनानी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति यह सोचे - आज मैं किस वस्तु का उपभोग करूं । प्रतिदिन की सूची बने । जैन साहित्य में चौदह नियम विश्रुत है। उसका एक नियम है— मुझे आज पूरे दिन में पांच द्रव्य या इतने द्रव्य से अधिक नहीं खाना है । इस तरह का एक सीमाकरण होना चाहिए। यह प्रतिदिन के भोजन की सीमा बहुत आवश्यक है। प्राकृतिक चिकित्सक कहते हैं— अगर स्वस्थ रहना है तो भोजन में एक से अधिक अनाज मत खाओ। गेहूं खाना है तो गेहूं खाओ। चावल खाना है तो चावल खाओ । बाजरी खाना है तो बाजरी खाओ। दो अनाज एक साथ मत खाओ । एक अनाज खाओ। इससे पाचन ठीक होगा। यह संयम की दृष्टि से नहीं कहा गया है, पाचन और स्वास्थ्य की दृष्टि से कहा गया है 1 ज्यादा चीजें भी एक साथ मत खाओ । कलकत्ता के एक प्रसिद्ध चिकित्सक हैं डाक्टर गांगुली । वे गुरुदेव के दर्शन करने आए। बातचीत के दौरान डॉ० गांगुली ने कहा- यदि स्वस्थ रहना है तो रोटी, थोड़ी-सी दाल, एक सब्जी, एक फल — इतना ही भोजन होना चाहिए। इसके अतिरिक्त और किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। पहले राजा भोजन को राजशाही भोजन कहा जाता था । बीमारियां भी उस समय राजशाही थी। टी० वी० की बीमारी का नाम ही राजयक्ष्मा था । यह बीमारी बड़े लोगों को होती थी, गरीबों के पास यह बीमारी फटकती ही नहीं थी। आज तो हर आदमी राजशाही हो गया, राजशाही बीमारियां भी आम हो गई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003067
Book TitleMahavira ka Arthashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2007
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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