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________________ अहिंसा और शान्ति का अर्थशास्त्र वध न करो । पीटो मत, मारो मत, सताओ मत । छविच्छेद मत करो। उस युग में अंगभंग करने का दण्ड भी विधान में था। दास प्रथा का युग था। अंगभंग करने की सजा भी दी जाती थी। दण्ड स्वरूप हाथ काट देते थे, पैर काट देते थे, शरीर के दूसरे अवयव काट देते थे। महावीर ने कहा-अंग-भंग मत करो • अतिभार मत लादो, मनुष्यों पर भी नहीं और पशुओं पर भी नहीं। • आजीविका का विच्छेद मत करो, किसी का शोषण मत करो। यह न हो कि श्रम अधिक हो पारिश्रमिक कम मिले। श्रम, अर्थ और संयम उत्पादन का सारा श्रम अर्थ के साथ चलता है। श्रम का मूल्य क्या है? एक व्यक्ति श्रम करता है, उसके प्रतिफल में उसे क्या मिलता है ? महावीर के समय से लेकर साम्यवाद और गांधीजी के समय तक इस पर काफी विचार चला है कितना श्रम और कितना अर्थ । इस संदर्भ में साम्यवाद का सिद्धान्त रहा–योग्यता के अनुरूप कार्य और कार्य के अनुरूप आजीविका या दाम । गांधीजी ने इसमें कुछ संशोधन किया। उन्होंने कहा—'आवश्यकता की कोई एक परिभाषा नहीं हो सकती इसलिए उसका एक यांत्रिक रूप नहीं होना चाहिए। यह विवेक पर निर्भर होना चाहिए। जितना काम, उतना दाम ।' महावीर ने सूत्र दिया-श्रम और अर्थ के बीच में संयम को जोड़ो। केवल श्रम और अर्थ ही नहीं, बीच में संयम भी रहे । श्रम का भी शोषण न हो, आजीविका का भी विच्छेद न हो । कल्पना करें-एक आदमी समर्थ है, वह ज्यादा काम कर लेता है। एक आदमी कमजोर है, उतना काम नहीं कर पाता। किन्तु रोटी तो दोनों को चाहिए। यदि श्रम के आधार पर ही उन्हें मूल्य दिया जाएगा तो आजीविका का विच्छेद हो जाएगा, शोषण हो जाएगा। जो प्राथमिक अनिवार्यताएं, आवश्यकताएं हैं, उनकी पूर्ति होनी चाहिए । महावीर ने बड़े महत्त्वपूर्ण शब्द का चुनाव कियाभक्तपान विच्छेद-रोटी-पानी की कमी न हो, उसका विच्छेद न हो। तीन निर्देश उत्पादन में बहुत सारी वस्तुएं आती है । आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने उत्पान से कुछ कारकों को हटाया है ।डा० सेठ और मार्शल ने वेश्यावृत्ति को उत्पादन से अलग कर दिया। इसे उत्पादक श्रम नहीं माना। उन्होंने इस पर नैतिकता की दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003067
Book TitleMahavira ka Arthashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2007
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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