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महावीर का अर्थशास्त्र
बड़ा पाप है मिथ्यादर्शन । हिंसा करने वाला स्वयं डूबता है, औरों को डुबोए या नहीं, किन्तु मिथ्या दृष्टिकोण वाला व्यक्ति लाखों को डुबो देता है । इसलिए इस दृष्टिकोण को मिटाओ। आयारो में कहा गया है—'सम्पत्तदंसी न करेइ पावंसम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं कर सकता। व्यक्ति का एकांगी दृष्टिकोण ही पर्यावरण की समस्या का मुख्य हेतु है। विलासिता और क्रूरता
लोक आकाश पर टिका है, आकाश पर वायु और वायु पर जल टिका हुआ है, जल पर पृथ्वी टिकी हुई है और पृथ्वी पर प्राणी स्थित हैं । इतनी गहरी परतें हैं इसकी । इन परतों के नुकसान का कोई सवाल ही नहीं था किन्तु मनुष्य इतना निर्मम
और क्रूर बन गया कि वह मूल को ही खोदने लगा। धरती को ही नहीं, वह आकाश को खोदने का भी प्रयत्न करने लगा। इतना धन मनुष्य के पास था कि सात पीढी खाती तो भी खत्म न होता । ऐसे घर हमने आंखों से देखे हैं, जिनकी दीवारों में भी सोना भरा पड़ा था, किन्तु वे बर्बाद हो गए। सब अपने ही हाथों से उनकी संतानों ने खो दिया। हम विपन्नता के उपासक नहीं हैं, दरिद्रता के उपासक नहीं हैं किन्तु एकांगी सम्पन्नता के उपासक भी नहीं हैं। सम्पन्नता विलासिता बढ़ाती है और विपन्नता क्रूरता बढ़ाती है। विलासिता और क्रूरता दोनों पाप हैं । हम मध्यम मार्ग के उपासक हैं। गांधी बहुत उच्च शिक्षाप्राप्त थे। वे बैरिस्टर थे, सब कुछ हासिल कर सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे पक्के समाजवादी थे। कहते थे समाज को जब तक न मिले, अकेले क्यों खाऊं । एक बच्चे ने उनसे कहा-'आप यह छोटी-सी लंगोटी क्यों पहनते हैं। मेरी मां आपके लिए अच्छी-सी पोशाक तैयार कर सकती है।' गांधी बोलें-'एक पोशाक से काम नहीं चलेगा, तीस करोड़ पोशाक हो, तब मैं पहनूं।' तादात्म्य की अनुभूति
अपनी बात बताऊं। मैंने संतों का एक ग्रुप लोकोपकार के लिए सौराष्ट्र भेजा किन्तु वहां वातावरण कुछ ऐसा बना, उन्हें स्थान और रोटी मिलनी भी मुश्किल हो गयी। मुझे सूचना मिली, वहां संतों को आहार-पानी मिलने में भी कठिनाई हो रही है। मन में चिंतन आया, उन्हें वहां भेजकर मैंने अच्छा नहीं किया और उसी समय संकल्प किया कि जब तक उन्हें पूरा आहार नहीं मिलता, मैं भी पूरा आहार नहीं करूंगा। यह संकल्प मैंने किसी के सामने व्यक्त नहीं किया। एक महीने बाद सूचना
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