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महावीर और अर्थशास्त्र
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प्रश्न उठता था— 'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या' ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है । क्या उस जगत् को मिथ्या माने, जो सामने दीख रहा है ? जो चीज सामने दिखाई दे रही है, वह मिथ्या कैसे हुई ? महावीर ने कहा- भौतिकवाद सत्य है और आत्मा भी सत्य है। क्या पुद्गल सत्य नहीं है? जीवन सत्य है तो क्या मृत्यु सत्य नहीं है? दोनों सत्य हैं। ___ महावीर ने जो कुछ कहा, अनुभूति के आधार पर कहा। उन्होंने कहा-एक साथ किसी को आध्यात्मिक बनाना चाहोगे, असफल हो जाओगे । उसे इस दिशा में धीरे-धीरे आगे बढ़ाओ। उसकी भूख को बढ़ाओ, ज्ञान-पिपासा को तेज करो, अपने आप काम हो जायेगा। वस्तुत: आज के भटके हुए मानव को रास्ता दिखाने की बड़ी अपेक्षा है। आज सारा संसार आर्थिक बन रहा है। अर्थ ही प्रधान है, इस मनोवृत्ति को कैसे बदलें? इस दिशा में निरन्तर प्रयत्न होना चाहिए। विकास की अवधारणा ____अर्थ-विकास भी एक विकास है। विकास की अपनी-अपनी अवधारणा है। हम कोई नियम किसी पर थोप नहीं सकते। कहा जा रहा है-कोई व्यक्ति दरिद्र नहीं रहना चाहिए, किन्तु धनकुबेर क्यों बने ?
एक दरिद्र व्यक्ति किसी राजा के पास गया। जाकर बोला—'राजन् ! मैं सिद्ध हो गया हूं। मैं सबको देखता हूं किन्तु मेरी ओर कोई नहीं देखता।
रे दारिद्रय् ! नमस्तुभ्यं, सिद्धोहं त्वत्प्रसादतः ।
सर्वानहं च पश्यामि, मां न पश्यति कश्चन ॥ दरिद्रता तुझे नमस्कार है । तेरी कृपा से मैं सिद्ध हो गया हूं। मैं सबको देखता हूं, किन्तु मुझे कोई नहीं देखता। ___ ऐसी दरिद्रता हम नहीं चाहते और दरिद्र आदमी धार्मिक भी शायद नहीं बन सकेगा। खाने को रोटी नहीं है, तो धर्म क्या करेगा? हमारा चिंतन न तो आर्थिक दरिद्रता का है और न धन को बढ़ाने का है।
( आवश्यकता पूर्ति सबकी होनी चाहिए, किन्तु जहां औरों के स्वार्थ की बलि हो, ऐसी आर्थिक सम्पन्नः कभी भी काम्य नहीं होगी और न होनी चाहिए। समय-समय की अवधारणाएं भिन्न-भिन्न होती हैं और भिन्न-भिन्न अवधारणाएं सामयिक होती हैं। तात्कालिक बात का आकर्षण ज्यादा होता है।
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