________________
अहिंसा : जीवन-संस्कृति को नई दिशा
मनुष्य को भूख लगे और खाने की चीज उसके पास हो फिर भी वह नहीं खाये, ऐसा कभी हो सकता है ? यह मनुष्य स्वभाव के विरुद्ध है । पेट में भूख हो, और हाथ में खाद्य-पदार्थ हो तो मनुष्य उसे न खाए, यह तो न कभी हुआ और न हो ही सकता है।
लेकिन तपस्या करने वाले केवल मुट्ठी भर साधु ही नहीं, बल्कि हजारों और लाखों धार्मिक लोग एकादशी, शिवरात्रि, पर्युषण, रमजान अथवा लेंट के नाम से मनुष्य स्वभाव के विरुद्ध फाका करते, व्रत रखते, पाए जाते
यौवन हो और विकार को तृप्त करने का मौका भी हो, ऐसी हालत में मनुष्य ने क्या कभी विषय-सेवन छोड़ा है ? यह मनुष्य स्वभाव के विरुद्ध है। इसमें शायद कुदरत का द्रोह' भी है । कहा जाता है मनुष्य चाहे तो संयम का और ब्रह्मचर्य का दंभ कर सकता है; लेकिन कुदरत ने यह शक्ति सामान्य मनुष्य को दी ही नहीं है । धार्मिक साधना के कारण जिनकी चित्तवत्ति विकृत हो गई हो, वे भले ही इसमें कामयाब हो जाएं, किन्तु सामान्य मनुष्य के लिए यह असंभव है।
ऐसा होते हुए भी असंख्य विधवाएं अपने विकारों पर विजय पाकर पवित्र शान्तिमय जीवन व्यतीत करती हैं और समाज को संयम का गौरव सिखाती हैं । विरागी साधुओं की बात नहीं, हजारों और लाखों महत्त्वाकांक्षी तरुण अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए विकारों को दवा लेते हैं। इतना ही नहीं किन्तु उन्हें भूल भी जाते हैं । और ऐसे भी असंख्य सामान्य पति-पत्नी हैं, जो गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए भी, यदि किसी कारणवश उन्हें एक दूसरे का वियोग सहन करना पड़े, तो पारस्परिक प्रेम की उत्कटता के कारण ही अपने विकारों को मार सकते हैं और आजन्म ब्रह्मचारियों से भी अधिक उच्च कोटि की निविकारिता अनुभव कर सकते हैं।
अगर झूठ बोलने से या वचन भ्रष्ट होने से मनुष्य को कामनातीत मुनाफा हो सकता है, तो क्या मनुष्य सत्य पर डटा रह सकता है ? नहीं। लोभ का वेग असाधारण होता है। मनुष्य शायद काम-विकार पर विजय पा सके लेकिन लोभ छोड़ने वाला कोई बिरला ही मिलेगा।
ऐसा होते हुए भी केवल हरिश्चन्द्र ही नहीं, कर्ण ही नहीं, रामचंद्र ही नहीं, किन्तु हजारों बनिये, किसान और कारीगर पाये जाते हैं जो अपने वचन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org