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अहिंसा शास्त्र ही नहीं, शस्त्र भी
मनुष्य शान्ति का इच्छुक है। वह शान्ति से जीना चाहता है। उसकी शान्ति में किसी प्रकार की बाधा पहुंचती है तो वह अस्थिर हो जाता है। शान्ति के लिए इतनी गहरी तड़प होने पर भी वह अशान्ति से घिर जाता है, क्योंकि शान्ति का अमोघ साधन है अहिंसा । जब तक अहिंसा की चेतना नहीं जागती है, अल्प मात्रा में जागती है, तब तक व्यक्ति हिंसा के सहारे चलता है । हिंसा एक प्रकार का उद्वेग है। उद्वेग के साथ शान्ति का दूर का रिश्ता भी नहीं है । उद्वेग की उपस्थिति में शान्ति सांस ही नहीं ले सकती । इसलिए उद्वेगमूलक प्रवृत्ति से बचाव करना जरूरी है।
हिंसा जीवन का एक खतरनाक मोड़ है। यह ऐसा मोड़ है, जहां घुमाव है, फिसलन है और अंधेरा है। घुमावदार मोड़ों पर प्रकाश की समुचित व्यवस्था हो और ट्रैफिक पुलिस सावधान हो तो दुर्घटनाएं कम होती हैं । इसी प्रकार अंधेरे रास्ते सीधे हों तो उन्हें सुविधा से पार किया जा सकता है, पर आगे कुछ भी दिखाई न दे सके, ऐसे मोड़ों पर हर पल मौत का साया मंडराता रहता है।
___ अहिंसा का रास्ता कुछ लम्बा अवश्य है, पर वहां न तो कुछ खतरनाक मोड़ है, न फिसलन है और न अंधकार है। ऐसे रास्ते पर व्यक्ति निश्चिन्तता के साथ आगे बढ़ता है और समय से पहले मंजिल तक पहुंच जाता है । अहिंसा के दो अंग हैं-सापेक्षता और सह-अस्तित्व । इनका स्रष्टा है अनेकान्त । आज ससार एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां से आगे बढ़ने के लिए उसे अनेकान्त की जरूरत है। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या घटना को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखना और विरोधी युगलों में समन्वय स्थापित करना—यह अनेकान्त है। यही सापेक्षता और सह-अस्तित्व का आधार है। अनेकान्त की बैसाखी के सहारे मनुष्य शान्ति की दिशा में प्रस्थान कर सकता है और शान्ति से जीवन यापन कर सकता है । अनेकान्त को नहीं समझा गया तो किसी भी समय विश्व-युद्ध भड़क सकता है।
हत्या न करना, न सताना, दुःख न देना अहिंसा का एक रूप है । यह अहिंसा की पूर्णता नहीं । उसका आचारात्मक पक्ष है। विचारात्मक अहिंसा इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है। विचारों में उतर कर ही अहिंसा या हिंसा को सक्रिय होने का अवसर मिलता है। वैचारिक हिंसा अधिक भयावह है । उसके परिणाम अधिक घातक हैं। विचारों की शक्ति की थाह पाना बहुत मुश्किल
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