________________
अहिंसा के आधारभूत तत्त्व
अशान्ति और हिंसा तथा शान्ति और अहिंसा-ये दो युगल हैं । जैसे अशान्ति और हिंसा को कभी अलग-अलग नहीं देखा जा सकता, वैसे ही शांति और अहिंसा को विभक्त नहीं किया जा सकता । अहिंसा को मैं व्यापक संदर्भ में देखता हूं।
अणुव्रत उस व्यापकता की एक व्यावहारिक संहिता है।
भेद हमारी उपयोगिता है। बांटना, विभक्त करना सुविधा है । इस उपयोगिता और सुविधा को हमने वास्तविक मान लिया और उसके आधार पर मानव-जाति को टुकड़ों में बांट दिया । जाति और रंगभेद के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में एक घृणा की दीवार खड़ी हो गई। हीनता और उच्चता का एक अभेद्य किला बन गया। यह कहना अतिप्रसंग नहीं होगा कि इस जाति और रंगभेद के कारण हिंसा को निरंतर बढ़ावा मिल रहा है । मनुष्य में हीनता और अहं की ग्रन्थि सहज ही होती है। यह जातिवाद और रंगवाद इन दोनों ग्रंथियों को खुलकर खेलने का मौका दे रहा है । मनुष्य जाति का एक बहुत बड़ा भाग हीनता की ग्रंथि से ग्रस्त है तो दूसरा भाग अहं की ग्रंथि से रुग्ण है । क्या जातिवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता ? जाति काल्पनिक है। उसे समाप्त करने की बात सोच भी लें पर रंगभेद एक यथार्थ है। वह कोरी कल्पना नहीं है। उसकी समाप्ति होने पर भी हिंसा की समस्या सुलझेगी नहीं । इसलिए मैं सोचता हूं-अहिंसा की दिशा में हमारी यात्रा भीतर से शुरू हो। जातिभेद ओर रंगभेद के होने पर भी हिंसा न भड़के, घृणा को अपना पंजा फैलाने का अवसर न मिले, ऐसा कुछ सोचना है और वह भीतरी यात्रा से ही संभव है । मैं अहिंसा की अन्तर्यात्रा में विश्वास करता हूं। हम मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम का इतना सशक्त वातावरण बनाएं कि उसमें घृणा को जन्म लेने का मौका ही न मिले । इतिहास साक्षी है कि समाज की धरती पर जितने घृणा के बीज बोए गए, उतने प्रेम के बीज नहीं बोए गए। यदि आज हम इस ऐतिहासिक यथार्थ को बदलने की दिशा में चलें तो हमारा नई दिशा में प्रस्थान होगा। मैं इस सम्मेलन में उस नई दिशा में प्रस्थान करने के लिए आप सबसे अनुरोध करता
वैचारिक स्वतंत्रता को रोकना किसी भी दृष्टि से वांछनीय नहीं है। उस वैचारिक स्वतंत्रता के आधार पर ही अनेक धर्म-सम्प्रदाय विकसित हुए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org