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समाज-व्यवस्था और अहिंसा
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हैं, जब उसके मन में उसके प्रति कुछ लगाव हो या उसे किसी प्रकार का भय
हो ।
क्या हृदय परिवर्तन से समाज व्यवस्था संभव है ?
मैं अहिंसा के क्षेत्र को सीमित नहीं मानता । वह सार्वदिक् और सार्वत्रिक होता है । इसलिए उसका प्रभाव व्यक्ति तक ही मान लेना हमारी भारी भूल होगी। वैसे एक - एक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन ही तो समाजपरिवर्तन का आधार बनता है । सचाई यह है, वही परिवर्तन अधिक स्थायी और अधिक लाभदायी होता है ।
प्रश्न तब जटिल हो जाता है, जब समाज का कोई व्यक्ति या वर्ग विशेष व्यवस्था को ताक पर रखकर अपने स्वार्थों को ही प्रमुखता देने लग जाता है । वह सचाई को नहीं परखता हो, ऐसी बात नहीं है । किन्तु वह स्वार्थी के लिए इतना अंधा हो जाता है कि उसके समक्ष वह समाज की समस्त व्यवस्थाओं की अवहेलना करने लग जाता है । वहां समाज व्यवस्था किसी बल या शक्ति के सहारे को भी इनकार कर नहीं चल सकती । जहां व्यक्ति सहृदय हो, वहां हृदय परिवर्तन का सिद्धांत काम कर सकता है । हृदयहीनता और पशुता की स्थिति में तो बल या शक्ति ही कारगर हो सकती है ।
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