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समाज-व्यवस्था और अहिंसा
समाज-रचना के आधार में परिग्रह और हिंरा का प्रमुख हाथ होता है । व्यक्ति जब किसी समूह को स्वीकारता है, उसके साथ वह अपना ममता बन्धन स्थापित कर लेता है । मेरा परिवार, मेरी जाति, मेरा समाज, मेरे समाज के प्रति मेरा दायित्व, मेरा राष्ट्र, मेरे राष्ट्र के प्रति मेरा दायित्वयह मेरे का बन्धन उसके साथ कुछ ऐसा जुड़ जाता है कि वह उसको औरों से पराया कर देता है। इस परिग्रह के स्वीकार के साथ ही हिंसा का प्रारम्भ हो जाता है। मेरे समाज या राष्ट्र के हितों की सुरक्षा कैसे हो, उसका विकास कैसे हो, उसका विस्तार कैसे हो औरों के मुकाबले वह कमजोर न रह जाए -ये सारी चिन्ताएं उस मेरेपन के स्वीकार के साथ स्वयं जुड़ी हुई चली आती हैं । इस प्रकार समाज, फिर चाहे वह शोषण-मुक्त हो अथवा शोषण-युक्त, हिंसा और परिग्रह उसके परिकर में होते ही हैं । इसलिए सम्पूर्ण अहिंसा की संगति मैं यहां नहीं देखता।
मैं यह मानता हैं कि समाज-निर्माण में अनेक घटक काम करते हैं। उनमें से अहिंसा भी एक है । वह उसमें सम्पूर्ण रूप से काम नहीं कर सकती; क्योंकि समाज के मूल में भय और परिग्रह भी काम करते हैं । अहिंसा का का भय और परिग्रह के साथ तालमेल बैठना असम्भव है। फिर भी समाज के जीवन में हिंसा और अहिंसा का विवेक होना आवश्यक है।
हिंसा के अनेक स्तर होते हैं। एक स्तर यह होता है कि हर समस्या का समाधान गोली और पुलिस में खोजा जाए । एक स्तर यह होता है कि गोली और पुलिस का आश्रय अन्तिम स्थिति में लिया जाए । पहला स्तर बहुत कठोर है, दूसरा उसकी अपेक्षा मृदु है । हर समस्या का समाधान समझौते से हो, सद्भावना से हो, यह पूर्ण अहिंसा है । समझौते से समाधान नहीं आए, उसके लिए सत्याग्रह, धरना, अनशन आदि का सहारा लिया जाए, यह व्यावहारिक अहिंसा पाकिस्तान से सम्बन्ध सुधारने के लिए यही अहिंसात्मक साधन अनशन आदि अपनाए, तो उससे किसी परिणाम की आशा करना हमारा भ्रम ही होगा। क्योंकि उनके मन में भारत के प्रति कोई प्रीति नहीं है और न ही उनके समक्ष है कि सी प्रकार का भय । इसलिए अहिंसा जहां दबाव बनकर आती है । वहां उसकी सफलता के लिए आवश्यक है कि जिसके विरुद्ध दबाव दिया जाता है. वह उसे महसस भी करे । और वह महसस तभी कर सकता
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