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परिग्रह का मूल
मनुष्य में जिजीविषा है-जीने की इच्छा है और उसमें कामना है । इन दोनों की पूर्ति के लिए वस्तुएं आवश्यक होती हैं। आगे चलकर आवश्यकता स्वयं कामना बन जाती है । कामना में विलीन हो जाती है । इस पृष्ठभूमि पर परिग्रह या संग्रह का जन्म होता है।
संग्रह या परिग्रह हिंसा से भिन्न नहीं है। जहां संग्रह है, वहां निश्चित हिंसा है। जहां परिग्रह है, वहां निश्चित हिंसा है। परिग्रह हिंसा का ही एक रूप है, किन्तु इतना बड़ा रूप है कि उसका अस्तित्व बहुत शक्तिशाली हो गया है। इसीलिए हिंसा और परिग्रह एक युगल बना हुआ है। भगवान् महावीर ने कहा है-जो व्यक्ति हिंसा और परिग्रह को नहीं छोड़ता वह धर्म नहीं सुन पाता, सम्यग्दृष्टि नहीं होता और धर्म का आचरण नहीं कर पाता। इस सिद्धांत में बहुत सचाई है। परिग्रह का आशय समझने पर वह स्वयं प्रकट हो जाती है।
परिग्रह का मूल कहां है ? यह खोज लम्बे समय तक चलती रहती है। भिन्न-भिन्न तत्त्ववेत्ताओं ने भिन्न-भिन्न विचार प्रकट किए हैं । भगवान महावीर का विचार है कि परिग्रह का मूल मूर्छा है, आसक्ति है। वस्तु परिग्रह हो सकती है किन्तु वह परिग्रह का मूल नहीं है। वह मूर्छा से जुड़कर ही परिग्रह बनती है। मूर्छा अपने-आप में परिग्रह है चाहे वस्तु हो या न हो । वस्तु अपने-आप में परिग्रह नहीं है। वह मूर्छा द्वारा संगृहीत होकर परिग्रह बनती है । मूर्छा के होने पर संगृहीत वस्तु भी परिग्रह बनती है इसलिए परिग्रह के दो आकार बन जाते हैं-भीतरी और बाहरी। मूर्छा भीतरी परिग्रह है और मूर्छा द्वारा संग्रहीत वस्तु बाहरी परिग्रह है।
साधारणतया परिग्रह छोड़ने में वस्तु छोड़ने को प्राथमिकता दी जाती है जबकि प्राथमिकता दी जानी चाहिए मूर्छा छोड़ने को। वस्तु छूटती है और मूर्छा नहीं छूटती है, कोरा बाहरी आकार कम होता है । मूर्छा छूटती है और बाहरी वस्तु नहीं छुटती, फिर भी परिग्रह छूट जाता है ।सच्चाई यह है कि मूर्छा के छूटने पर वस्तु का संग्रह हो ही नहीं सकता। जीवन वलाने भर कुछ लिया जा सकता है किन्तु संग्रह या संचय जैसी वृत्ति को उभरने का अवकाश ही नहीं मिल पाता । कठिनाई वह है कि बहुत सारे लोग मूल रोग की चिकित्सा नहीं करते । चिकित्सा करते हैं उसके परिणाम की । वस्तु-संग्रह की चिकित्सा मूल रोग की चिकित्सा नहीं है । यह बहुत स्थूल
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