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संग्रह की परिणति : संघर्ष
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शान्ति भंग की, उन्हें उतार दिया गया है । अब रानियों के हाथों में एक-एक चूड़ी है।'
__ राजा के चिन्तन में नया तथ्य उभरा । एकत्व और बहुत्व की निष्पत्ति पर जाकर वह ठहर गया। राजा ने सोचा, संग्रह होने का परिणाम संघर्ष है। असंग्रह में संघर्ष नहीं होता। राजा का मन आश्वस्त हो गया। एकत्व की अनुभूति ने शरीर के दाह का अन्त कर दिया । शरीर के साथ मन को भी समाधान मिल गया। संघर्ष जीवन की अनिवार्यता है
अनिवार्यता जीवन की बहती धारा है । बहाव संग्रह नहीं है, संग्रह है उस बहाव को जमाकर रखना। पदार्थ को जमाकर रखने का भाव पैदा होते ही मानसिक संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। इस संघर्ष को वही टाल सकता है, जो वर्तमान में जीने की कला जानता है।
चिन्तन की गहराइयों से डूबे हुए एक सेठ ने गंभीर मुद्रा में घर में प्रवेश किया। इससे पहले उसकी पत्नी उसे कई बार घर बुलाने का प्रयास कर चुकी थी। पर वह अपने काम में व्यस्त रहा । पत्नी ने विलम्ब का कारण पूछा । उसने कहा---'आज मैं अपनी सात पीढ़ियों की व्यवस्था करने में लग गया था, इसलिए समय पर नहीं आ सका।' पत्नी समझदार थी। सात पीढ़ियों की चिन्ता उसे बड़ी अटपटी लगी। कुछ समय बाद उसने अपने पति से कहा-'अपने घर के बाहर कुटिया में एक भिक्षु रहता है। आप उसे खाना दे आएं।' पति ने आनाकानी की, किन्तु पत्नी के आग्रह को वह टाल नहीं सका।
एक पात्र में कुछ रोटियां लेकर वह भिक्ष के पास पहुंचा और रोटियां उसकी ओर बढ़ा दीं। भिक्षु निश्चित भाव से बैठा था। उसने कहा-'मैंने भोजन कर लिया है।'
__ सेठ बोला-'संध्या का भोजन इन रोटियों से हो जाएगा। भिक्षुक ने मुसकराते हुए कहा-'शाम के भोजन की चिन्ता अभी क्यों करूं ?' भिक्षु के एक वाक्य ने सेठ के चिन्तन को मोड़ दे दिया। वह सोचने लगा-'कितना विचित्र है यह व्यक्ति जो सांझ के खाने की चिन्ता भी नहीं करता और मैं सात पीढ़ियों की व्यवस्था कर रहा हूं।' उसे अपने पर हंसी आने लगी।
संग्रह वही व्यक्ति करता है जो भविष्य के लिए चिंतित रहता है। वर्तमान में जीने वाला संग्रह की कल्पना ही नहीं कर सकता। ऐसा व्यक्ति जीवन-मुक्त होता है । जीवन-मुक्त का लक्षण है-अतीत के चिंतन से उपरत मविष्य की आकांक्षाओं से मुक्त और वर्तमान का अनासक्त भाव से उपयोग करना।
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