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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों के सम्बन्ध में कहीं कोई विशेष विप्रतिपत्ति नहीं है । जीवन का अधिकार मनुष्य के अस्तित्व से सम्बन्धित है | जब उसे जीने का अधिकार मिला है तो स्वास्थ्य और स्वतंत्रता का अधिकार भी उसके लिए जरूरी है । इन अधिकारों के साथ मैं नैतिकता का प्रश्न जोड़ना नहीं चाहता क्योंकि ये मानवीय अधिकार हैं। अधिकार प्राप्त करके भी उसका दुरुपयोग न करना नैतिकता की परिधि में अवश्य आ जाता है ।
चिंतन और लेखन की स्वतंत्रता जहां न हो, वहां व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों का उपयोग ही कैसे कर सकता है ? साम्यवादी व्यवस्था में पहले संपत्ति का अधिकार व्यक्ति को नहीं था । पर अब एक सीमा तक यह अधिकार भी दिया जा रहा है ।
अधिकारों की यह सारी चर्चा व्यक्ति और समाज के समन्वित मूल्य को स्वीकार करने से ही पूरी हो सकती है । केवल समाज या केवल व्यक्ति को अधिकार मिलने से संघर्ष की स्थिति अधिक जटिल हो सकती है। मैं व्यक्ति और समाज दोनों को सापेक्ष मूल्य देता हूं। जहां संगठनात्मक शक्ति का प्रश्न है, वहां समाज मुख्य है । समाज का घटक व्यक्ति है । इस दृष्टि से व्यक्ति प्रधान है । व्यक्ति का शक्ति स्रोत समाज है और शक्ति का उद्गम स्थल व्यक्ति है । इस प्रकार दोनों का स्वतन्त्र किंतु सापेक्ष मूल्य है ।
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एक ग्यारह (११) का अंक है और एक एक (१) का अंक है । ग्यारह का अपना मूल्य है और एक अपना एक दूसरे से निरपेक्ष इनका विशेष मूल्य नहीं होता । इसी गाणितिक नियम को मैं व्यक्ति और समाज पर लागू करता हूं। जहां हमें व्यक्ति को मूल्य देना हो वहां समाज के मध्य कोमा, अर्धविराम आदि लगाकर एक में अनेक का अस्तित्व स्थापित किया जा सकता है । जहां समूह-चेतना को विकसित करने की अपेक्षा हो, वहां सारे अर्धविरामों को हटाकर एक संहति बना दी जाती है ।
नैतिकता की दृष्टि से व्यक्ति और समाज का मूल्यांकन किया जाए तो ari of अधिक मूल्यवान हो जाता है । क्योंकि नैतिकता को पनपाने वाला व्यक्ति ही होता है । व्यक्ति उदात्त है तो समाज की परिस्थितियां भी उदात्त हो जाएंगी और समाज की परिस्थितियां उदात्त हैं तो व्यक्ति को नैतिक बने रहने
सुविधा मिलती है। दूसरी ओर व्यक्ति जिन बीजों को पनपाना चाहता है उनका आधार समाज बनता है । इस रूपक को इस प्रकार भी माना जा पकता है कि समाज भूमि है और व्यक्ति बीज है । दोनों के समुचित योग से ही नैतिकता की पौध हरी-भरी रह सकती है ।
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