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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
देश का आर्थिक साम्राज्य विस्तृत हो जाता है । जापान ने कारों का इतना उत्पादन किया कि संसार पर प्रभुत्व जमा लिया । और भी अनेक छोटे-छोटे राष्ट्रों ने पदार्थों का उत्पादन कर ऐसा जाल फैलाया कि वे सारे संसार पर छा गए, और उनका आर्थिक प्रभुत्व जम गया । कितना ही बड़ा राष्ट्र क्यों न हो, यदि उसमें पदार्थ - उत्पादन की क्षमता नहीं है तो उसका आर्थिक साम्राज्य फैल नहीं सकता और आज की दौड़ में वह पिछड़ जाता है, अविकसित रह ता है । वह विकासशील देशों की सूची में नहीं आता ।
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आर्थिक व्यवस्था के इन दोनों सूत्रों के आधार पर हम समस्या पर विचार करें और यह देखें कि इन दोनों ने किस स्थिति का निर्माण किया है ? जब यंत्रों की, जड़ की क्षमता बढ़ती है - मूल्य बढ़ता है, चेतना की क्षमता कम होती है, मूल्य कम होता है, तब शोषण को बल मिलता है । शोषण आज की आर्थिक व्यवस्था और राजनैतिक प्रणाली का शब्द है । अध्यात्म की भाषा में उसका शब्द है " क्रूरता" । दोनों शब्द एक ही हैं । शोषण नया शब्द है और आज की अर्थ-व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है, आज की राजनैतिक क्रांति के साथ जुड़ा हुआ है । " क्रूरता" पुराना शब्द है । जैसे-जैसे क्रूरता बढ़ती है शोषण को बल मिलता है । जैसे-जैसे औद्योगिक विकास हुआ है शोषण भी बढ़ा है । आठ घंटा काम करने वाला मजदूर बेचारा आजीविका निर्वाह करने मात्र का पैसा पाता है, जबकि ऑफिस में बैठा हुआ अफसर या मालिक करोड़ों में खेलने लग जाता है । इतना अन्तर क्यों ? इसलिए कि मनुष्य में क्रूरता की वृत्ति है । यह वृत्ति क्यों पनपती है ? यह पनपती है इन्हीं आर्थिक अवधारणाओं के कारण । इन अवधारणाओं के संदर्भ में क्रूरता का पनपना सहज है ।
क्या शोषण मिटाया जा सकता है ? क्या क्रूरता की वृत्ति बदली जा सकती है ? जिसमें क्रूरता नहीं होती, वह शोषण नहीं कर सकता । कोई भी करुणाशील व्यक्ति शोषण नहीं कर सकता । शोषण वही कर सकता है जिसमें क्रूरता है, दूसरे के प्रति सहानुभूति नहीं है । वह यही सोचता है कि दूसरा मरे तो भले ही मरे, मुझे क्या ? इस क्रूरता को जन्म देने में अर्थ-व्यवस्था का बहुत बड़ा हाथ है |
चेतना के दो आयाम हैं- ज्ञान और संवेदन | यह संवेदन का जो आयाम है, वह समाज व्यवस्था के लिये आधारभूत सूत्र बनता है । जिस समाज में संवेदनशीलता का धागा नहीं होता, वह नृशंस लोगों का समाज बन जाता है । जिस समाज में यह सूत्र नहीं होता, वह हिंस्र पशुओं का समाज बन जाता
| मनुष्य का इसीलिए विकसित, सहयोगशील समाज बना कि इसमें संवेदना है । इसी के आधार पर आज हजारों-हजारों आदमी साथ में रहते हैं । यदि मनुष्य में कोरी बुद्धि होती, कोरा ज्ञान होता और संवेदना नहीं होती तो वह ज्ञान विध्वंसकारी ही होता । जिस वैज्ञानिक ने अणु-शस्त्रों का निर्माण किया
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