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आवश्यकताओं पर नियंत्रण ही समाजवाद की
नींव है
एशिया का प्रत्येक देश आज औद्योगीकरण की ओर तेजी से कदम बढ़ाने के लिए उत्सुक है । जोर-जबरदस्ती से जब यह कदम आगे बढ़ाया जाता है तो उसका क्या परिणाम होता है, यह रूस और दूसरे कम्युनिस्ट देश हमें चेतावनी दे रहे हैं। इसलिए एशिया वालों को समाजवाद तक पहुंचने का अपना ही कोई रास्ता और औद्योगीकरण का अपना ही कोई नमूना खोज लेना चाहिए। यह सोचना भी भ्रामक होगा कि यदि लोकतान्त्रिक व्यवस्था के संरक्षण में औद्योगीकरण की प्रक्रिया चलती है, तो फिर औद्योगीकरण की गति से कोई डर नहीं है। एक निश्चित हद के बाहर जाते ही औद्योगीकरण की गति स्वत: अनिवार्य रूप से तानाशाही की परिस्थिति पैदा कर देगी।
(पूंजीवाद का तो है ही, पर) समाजवादी और साम्यवादी इन दोनों का भी जोर भौतिक समृद्धि, उत्पादन की उत्तरोत्तर वृद्धि और जीवनस्तर को अधिकाधिक ऊंचा उठाने पर रहता है । इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की यथोचित पूर्ति होनी चाहिए। यह सत्य है कि भारत जैसे गरीब और पिछड़े हुए देश में सामाजिक पुननिर्माण का मुख्य काम ही जन-साधारण के जीवन-स्तर को ऊंचा उठाना है।
किन्तु भौतिक समृद्धि को देवता-तुल्य बना देने और भौतिक पदार्थों की इच्छा रखने वाली भूख को शांत करनेकी इच्छा रखने वाली जीवन-दृष्टि को प्रोत्साहित करने से न तो यहां काम चलेगा और न कहीं अन्यत्र ही।
यदि लगातार वह भूख उनको सताती रही, तो न लोगों के दिल और दिमाग में शांति रहेगी और न एक-दूसरे के बीच आपस में ही शांति रहेगी। उससे व्यक्तियों, दलों और राष्ट्रों के बीच अवश्य ही एक अनियन्त्रित स्पर्धा खड़ी हो जाएगी। प्रत्येक व्यक्ति अपने पड़ोसी से आगे बढ़ने की कोशिश करेगा और प्रत्येक राष्ट्र केवल दूसरे राष्ट्रों को पकड़ पाने की ही नहीं, बल्कि उन सबको पीछे छोड़ जाने की कोशिश करेगा। इस प्रकार के असंतोषी समाज में हिंसा और युद्ध उसकी एक खासियत हो जाते हैं। तब जीवन के समस्त मूल्य "और चाहिए," "और चाहिए" की सर्वोपरि इच्छा के अधीन हो जायेंगे। धर्म, कला, दर्शन, विज्ञान, सबको "अधिक चाहिए," "और अधिक चाहिए" इस एक ही लक्ष्य की पूर्ति में लग जाना पड़ेगा। समता, स्वतंत्रता,
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