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________________ अणुव्रत-प्रेरित समाज-रचना बुभुक्षित: किं न करोति पापम् ? भूखे भजन न होहि गोपाला। हमारे कवि और शास्त्रकार इस सत्य की अनुभूति करते रहे पर उसका समाधान खोजने की दिशा का उद्घाटन नहीं किया। ___ आज का युग उसके समाधान का सिंहद्वार खोल चुका है। अब गरीबी ईश्वरीय इच्छा न होकर मनुष्यकृत समाज-व्यवस्था की त्रुटियों का परिणाम प्रमाणित हो चुकी है। अब दीनता को सहारा देने वाला चिंतन निरस्त हो चुका है । आज का चिंतन है-त्रुटिपूर्ण समाज-व्यवस्था को बनाए रखकर दीनता को सहारा मत दो, किन्तु उसका परिमार्जन करो। इस परिमार्जन के युग में हर व्यक्ति को नया दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। दीन-वर्ग को धर्म-पुण्य के नाम पर उठाने की पुरानी धारणा में प्राण-संचार हो गया है। समाज के समर्थ वर्ग द्वारा कृत व्यवस्था दोष से विपन्न वर्ग उत्तेजित हुआ है । फलत: उसमें हिंसा उभरी है । इस हिंसा को उभारने के दोष का प्रायश्चित्त उन कारणों को निरस्त करके ही किया जा सकता है । मैं वर्तमान में हो रहे परिवर्तन को बहुत बड़ा सृजन नहीं मानता, मात्र अतीत की भूलों का प्रायश्चित मानता हूं। भूल की अनुभूति हुए बिना प्रायश्चित्त कैसे हो सकता है ? अनुभूति होने पर भी भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न करने का संकल्प किए बिना प्रायश्चित्त कैसे हो सकता है ? अणुवत इन दोनों की भूमिका पर दो दशकों से अपना चिंतन प्रस्तुत कर रहा है । चितन की दिशा में वह आगे भी बढ़ा है । अब उसे सफल करना है । चिंतन की सफलता की कसौटी है क्रिया। क्रिया और क्या है ? चिंतन का चरम बिंदु ही क्रिया है। ___ अणुव्रत के काय कर्ताओं को अब चिंतन को प्रयोग की भूमिका पर लाना है । मनुष्य जाति एक है-यह अणुव्रत का मुख्य सिद्धांत है । क्या यह कोरा आदर्श है या व्यावहारिक भी है ? यदि व्यावहारिक है तो वह फलित कसे हो सकता है ? मानवीय व्यक्तित्व के दो रूप हैं-आंतरिक और बाह्य । धर्म ने आंतरिक व्यक्तित्व में समानता लाने का दिशा-बोध भी दिया है। अजित संस्कारों एवं आवरणों की क्षीणता का अभ्यास करने पर आतंरिक समानता साधी जा सकती है। अणुव्रत को साधना केन्द्र के माध्यम से यह कार्य करना है, केवल परम्परा के रूप में नहीं, प्रायोगिक स्तर पर करना है। दूसरी बात यह है कि अणुव्रत को ऐसे समाज की रचना करनी है, जिसमें मनुष्य जाति की एकता का स्पष्ट प्रतिबिम्ब हो। उसके मुख्य आधार चार हो सकते हैं-नैतिकनिष्ठा, प्रेम, सहानुभूति और अनाग्रही दृष्टिकोण । नैतिक निष्ठा के अभाव में एक आदमी दूसरे आदमी के हितों का विघटन करता है। उसे लूटता है। उसका शोषण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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