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समाज रचना के आधार
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मनुष्य में शक्ति का प्रवेश होता है । ऐसे प्रयोग सफल भी हुए हैं । इनकी सफलता का आधार अध्यात्म और अहिंसा के प्रति आस्थाशीलता है । अणुव्रत का आधार अध्यात्म और अहिंसा है, अतः वह निर्माण के साथ स्वतंत्र चेतना का सम्बन्ध जोड़ता है ।
स्वतंत्र - चेतना को जागृत करने की प्रक्रिया
- चेतना - जागरण का अर्थ है विवेक-जागरण । इसके लिए कुछ मानदण्डों और मूल्यांकनों को बदलना आवश्यक है । किसी भी युग में मूल्यपरिवर्तन का काम बहुत कठिन होता है; क्योंकि इसके लिए वातावरण और संस्कारों को बदलना पड़ता है । आज पैसे का मूल्य अधिक है इसलिए जनता की शक्ति का व्यय पैसा बटोरने में हो रहा है। इसके स्थान पर मानसिक शांति का मूल्य अधिक हो तो पैसा अपने आप गौण हो जाता है । खाने का एक मूल्य है, उसके अनुसार खाना ही श्रेय है । किन्तु दूसरा मूल्य स्वास्थ्य का भी है । जिस भोजन से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है, दिन भर बेचैनी रहती है, पेट फूल जाता है, उस भोजन से क्या लाभ होगा ?
एक समय था, जब सती-प्रथा का सामाजिक मूल्य था। पति के पीछे सती होना स्त्री के गौरव का प्रश्न था । चित्तौड़ और जैसलमेर में एक साथ बीस-बीस हजार स्त्रियों के जौहर का इतिहास है । क्योंकि उस समय में जौहर का अंकन था | आज वह मूल्य बदल गया, इसलिए सती प्रथा का भी अन्त हो गया ।
मूल्य- परिवर्तन के लिए दृष्टिकोण की स्पष्टता के साथ लाभ की अनुभूति कराना भी आवश्यक है । लाभ और अलाभ इन दो स्थितियों में हर व्यक्ति लाभ की स्थिति स्वीकार करना पसन्द करता है । लाभ की स्थिति में भी वह प्रकृष्ट लाभ देखना चाहता है । किसी व्यक्ति को यह अनुभव हो जाए कि प्रामाणिक रहने में जो सच्चा लाभ मिलता है, वह अप्रामाणिकता से नहीं मिल सकता तो उसके दिमाग में अप्रामाणिक बनने का चिन्तन ही नहीं आएगा ।
विदेशी चितकों ने इस पर बहुत बल दिया कि नैतिकता से व्यापार अधिक सफल होता है । अनैतिकता से तात्कालिक सफलता मिल सकती है, किन्तु वहां दीर्घकालिक लाभ से वंचित होना पड़ता है। नैतिक व्यक्ति एक बार व्यापार में असफल भी हो जाते हैं तो उनके मन का संतोष खण्डित नहीं होता ।
एक समय भारत के व्यापारी भी प्रामाणिकता का मूल्य समझते थे । 'जावो लाख रहो साख' यह किवदन्ती मनुष्य की नैतिक आस्था का प्रतीक है ! आज यह मानदण्ड बदल गया है । मनुष्य की प्रतिष्ठा पैसे के आधार पर
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