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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
'मैं बार-बार बताऊं तो मुझे बार-बार डिक्सनरी देखनी पड़ती है । मेरा समय ऐसे ही व्यर्थ चला जाता है।'
___ कमजोरी तो अपनी है और छोड़ना उसको चाहता है । यह एक बड़ी समस्या है। आदमी यदि अपनी दुर्बलता को ठीक समझ ले तो कोई समाधान मिल सकता है। पर हम अपनी कमजोरी को ठीक समझ ही नहीं पा रहे हैं । हमारी यह कमजोरी है कि जहां पल्लवन देना चाहिए, हम स्वयं उसे पल्लवन नहीं दे रहे हैं।
___ अहिंसा की चर्चा हजारों वर्षों से हो रही है। उसे आज भी आवश्यक मानते हैं। उसकी अनावश्यकता को हम स्वीकार नहीं करते । पर उसका विकास नहीं हो पा रहा है। उसका मूल कारण है हमारी दुर्बलता। दुर्बलता यह है कि हम उसके प्रति सच्चे मन से प्रयत्न करना नहीं चाहते। आप स्वयं समझें कि आज हिंसा के पीछे जितनी मानवीय शक्ति खर्च हो रही है उसका एक प्रतिशत भाग भी अहिंसा के पीछे खर्च नहीं हो रहा हैं। बड़े आश्चर्य की बात है। हमारी दुहाई है अहिंसा की और सारी शक्ति का नियोजन हो रहा है हिंसा के पीछे । क्या यह विरोधाभास नहीं है ? हर आदमी शान्ति से रहना चाहता है और उसकी सारी प्रवृत्तियां अशान्ति को सिंचन दे रही हैं । क्या यह विरोधाभास नहीं है ? यह सब क्यों हो रहा है ? इसलिए कि बचपन से ही संस्कार दूसरे प्रकार के बने हुए हैं।
एक बार आचार्य श्री के सामने एक प्रश्न आया कि छोटे बच्चों को दीक्षित नहीं करना चाहिए। बड़ा आन्दोलन छिड़ा। उस स्थिति में आचार्य श्री ने कहा---'मैं इस पक्ष में नहीं हूं कि छोटे बच्चों को ही दीक्षा दी जाए। किन्तु यह मुझे स्पष्ट लगता है कि छोटे बच्चे जितने योग्य प्रमाणित होते हैं उतने शायद बड़े योग्य प्रमाणित नहीं होते । यह हमारा अनुभव है।' मैं केवल अपनी परम्परा की बात आपको बताऊं कि आठ आचार्य हो चुके हैं, आचार्य श्री तुलसी नौवें हैं और दसवां मैं आपके सामने बैठा हूं। इस परम्परा में लगभग १०, ११, १२, वर्ष की अवस्था वाले आचार्य हुए हैं। आचार्य श्री ग्यारह वर्ष की अवस्था में मुनि बने, मैं दस वर्ष की अवस्था में मुनि बना,
और भी बने । पर हमारा अनुभव है कि जो छोटी अवस्था में बने, उन्होंने जो साधना का विकास किया और उनके संस्कार जितने उपयोगी बने, बड़ी अवस्था वालों के नहीं बने । कारण स्पष्ट है कि पहले गृहस्थी में उलझे और फिर बाद में मुनि बने तो स्मृतियां दोनों तरफ काम करती हैं। इधर तो मुनि बन गए तो मुनि-धर्म को निभाना है और स्मृतियां अतीत वाली काम करती हैं। वे बंधन बार-बार सामने आ जाते हैं। यह इसलिए थापको बता रहा हूं कि बचपन में संस्कारों की उतनी तीव्रता नहीं होती, बाधाएं नहीं आतीं. और नए संस्कारों, नई आदतों को, पैदा करने में हमें
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