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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
संस्कार उनके सामने टिक नहीं पाते । एक प्रयोग करने की जरूरत है और वह प्रयोग होगा बचपन से अहिंसा की आस्था का निर्माण ।।
जीवन-विज्ञान की प्रकल्पना इसी चितन का परिणाम है। जिन सामाजिक मूल्यों को हम समाज में देखना चाहते हैं, विकसित करना चाहते हैं, उन सामाजिक मूल्यों को बचपन से ही प्रतिफलित करना चाहिए, उनके प्रति आस्था पैदा करनी चाहिए।
आज सबसे बड़ा संकट है आस्था का । श्रद्धा इतनी विचलित है कि आदमी कहीं भी टिक नहीं पा रहे हैं। एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा और तीसरे के बाद चौथा कदम आगे बढ़ रहा है । कहीं पर जमाकर खड़े होकर आदमी कुछ करना नहीं चाहते । मैंने एक आदमी को देखा है कि बचपन से ही उसके मन में साधना की बात आई और वह साधना करने चला किन्तु चंचलता इतनी कि किसी भी बात पर जमा नहीं। आज एक पद्धति को अपनाया तो तीसरे दिन दूसरी पद्धति को । और सातवें दिन तीसरी पद्धति को। बदलता गया, बदलता गया । आज यह स्थिति है कि वह जहां था, लगभग वहीं है, बहुत आगे सरक नहीं पाया । कहीं न कही आदमी को अपना पर जमाकर खड़ा होना होता है और जब वह बिन्दु प्राप्त नहीं होता है तो कहीं भी हम कुछ कर नहीं पाते। हमें आस्था को दृढ़ बनाना है और उसके लिए भावना का परिवर्तन आवश्यक है। शिक्षा के साथ इस संस्कार को पुष्ट किया जाए कि 'सब जीव समान हैं। सब जीव समान है'-यह बात भी कुछ अमूर्त बन जाती है । मूर्त बात, सगुण भाषा ज्यादा प्रभावशाली बनती है। अमत्तं बात कभी-कभी कमजोर वन जाती है तो फिर इस आधार पर एक सिद्धांत विकसित किया कि सब जीवों की बात हम छोड़ दें पर कम से कम जो हमारे सामने हैं, हमारे जैसे हैं, उसके प्रति तो यह भाव विकसित करें कि मानव जाति एक है । दूसरा मनुष्य वैसा ही है, जैसा मैं हूं । और जैसा मैं हूं, वैसा ही दूसरा मनुष्य है । इतनी आस्था उत्पन्न हो जाए तो मानवीय व्यवहार बदल जाए और यह बचपन में ही ज्यादा संभव है, क्योंकि उस अवस्था तक दूसरे संस्कार हावी नहीं होते, प्रभावी नहीं बनते।
जैसा प्रारंभिक पाठ मिलेगा, विद्यार्थी उसे जल्दी पकड़ेगा । समाजशास्त्र के अनुसार जिन मालिकों और दासों में मानवीय स्तर पर चिन्तन हुआ और संबंध स्थापित हुए उनका व्यवहार बदल गया। एक बड़ी क्रूर कहानी रही है इतिहास की कि मालिकों ने अपने दासों पर इतने क्रूर अत्याचार किए हैं कि उनको मानव नहीं माना जा सकता। मालिक मानो मनुष्य हो और दास जैसे उसका पशु हो। पशु के प्रति भी उतने अत्याचार या क्रूर व्यवहार नहीं किए जाते किन्तु मनुष्य के प्रति किए गए हैं और इतिहास की हजारोंहजारों घटनाएं इस तथ्य की साक्षी दे रही हैं।
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