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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
है । संवेदन न स्थापित होता है और न वह जीने के लिए आधारभूत है। वह स्वाभाविक है । संवेदना की अपेक्षा से व्यक्ति वास्तविक है और जीवनयापन की अपेक्षा से समाज वास्तविक है। इन दोनों की वास्तविकता में कोई विरोध नहीं है । व्यक्ति समाज को वास्तविक मानकर ही सुखपूर्वक जी सकता है और समाज की वास्तविकता को ध्यान में रखकर सामाजिक मूल्यों की सुरक्षा कर सकता है।
___ समाज-व्यवस्था के आधार तत्त्व दो हैं-काम और अर्थ । काम की सम्पूर्ति के लिए सामाजिक सम्बन्धों का विस्तार होता है । अर्थ काम-संपूर्ति का साधन बनता है । धर्म (विधि-विधान) के द्वारा समाज की व्यवस्था का संचालन होता है । प्राचीन समाजशास्त्रियों में से कुछेक ने काम को मुख्य माना और कुछेक ने धर्म को । महामात्य कौटिल्य ने अर्थ को मुख्य माना। उन्होंने कहा-काम और धर्म का मूल अर्थ है । इसलिए इस त्रिवर्ग में अर्थ ही प्रधान है। आधुनिक समाजवादी समाज-व्यवस्था में भी अर्थ की प्रधानता है । वह अर्थ पर ही आधारित है। अर्थाधारित समाज-व्यवस्था में व्यक्ति का स्वतन्त्र मूल्य नहीं हो सकता । व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को नियंत्रित किए बिना समाजवादी व्यवस्था फलित नहीं हो सकती । व्यक्ति अपने संवेदनों को जितना मूल्य देता है, उतना दूसरों के संवेदनों को नहीं देता । इसलिए व्यक्तिवादी समाज-व्यवस्था में दो स्थितियां निर्मित हुई---स्वार्थ को अपेक्षा और परार्थ की उपेक्षा । फलतः उस व्यवस्था में अप्रामाणिकता, अनैतिकता, शोषण और भ्रष्टाचार जैसी बुराइयां पनपीं। इन बुराइयों से संत्रस्त समाज ने समाजवादी व्यवस्था के द्वारा स्वार्थ और परार्थ की खाई को पाटने का प्रयत्न किया । व्यक्ति को व्यक्तिवादी समाज-व्यवस्था जितना स्वतन्त्र मूल्य दिए जाने पर उस खाई को पाटा नहीं जा सकता। इसलिए इस व्यवस्था में व्यक्ति को समाज के एक पुर्जे का स्थान देना पड़ा।
व्यक्तिवादी समाज-व्यवस्था में सामाजिक विषमता फलित होती है । उसमें कुछ लोग सम्पन्न होते हैं और जन-साधारण विपन्न रहता है । सम्पन्न लोग भोग-विलास में आसक्त रहते हैं। वे अपनी सुख-सुविधा की ही चिन्ता करते हैं, दूसरों के हितों की चिन्ता नहीं करते। उनकी इन्द्रियपरक आवश्यकताएं बढ़ जाती हैं। वे भोग से हटकर अन्य विषयों पर विचार के लिए समय ही नहीं निकाल पाते । विपन्न लोगों को इन्द्रियपरक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अत्यन्त श्रम करना होता है। उन्हें विचार का अवसर ही नहीं मिलता । इस इन्द्रियपरक समाज-रचना में सामाजिक विषमता चलती रहती है । राजतंत्र का इतिहास इस बात का साक्षी है । विचारपरक समाजरचना का श्रीगणेश उन लोगों ने किया जो भोग में लिप्त नहीं थे। उस विचारपरक समाज-रचना ने ही समाजवादी समाज-व्यवस्था को जन्म
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