________________
व्यक्ति और समाज
व्यक्ति और समाज--ये दो वास्तविकताएं हैं। व्यक्तिवादी दार्शनिकों का सिद्धांत यह है-'मनुष्य समाज से बाहर का मानव-प्राणी है अथवा रह सकता है ।' इस मान्यता में यह विचार निहित है कि मनुष्य समाज में प्रवेश करने के पूर्व व्यक्ति विशेष है। वह अपनी संपत्ति, अधिकार, जीवन की सुरक्षा अथवा अन्य किसी इच्छित उद्देश्य की पूर्ति के लिए सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करता है।
समाजवादी दार्शनिकों का सिद्धांत यह है-व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता। मानव-विकास के इतिहास में व्यक्ति और समाज दोनों का समान रूप से प्राधान्य है।
अनेकान्तवाद व्यक्ति और समाज की सापेक्ष व्याख्या करता है। व्यक्ति में वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों के मूल तत्त्व सन्निहित होते हैं । क्षमताओं का होना व्यक्ति की वैयक्तिकता है, उनका अभिव्यक्त होना व्यक्ति की सामाजिकता है । इसलिए व्यक्ति और समाज भिन्न-भिन्न हैं । व्यक्ति की वैयक्तिकता कभी खंडित नहीं होती। उसका कभी विनिमय नहीं होता । व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग बनकर भी व्यक्ति ही रहता है। इस अर्थ में व्यक्ति समाज से भिन्न भी है। व्यक्ति अपनी आकांक्षा, अपेक्षा और कर्म का विस्तार करता है, विनिमय और परस्परता का सम्बन्ध स्थापित करता है, इस अर्थ में वह समाज से अभिन्न भी है। व्यक्ति की सीमा संवेदन है । एक व्यक्ति को प्रेम, हर्ष, भय और शोक का संवेदन होता है, वह नितान्त वैयिक्तक है । वह संवेदन साधारण नहीं है। उसका विनिमय नहीं होता। वह दूसरों को दिया नहीं जा सकता । विनिमय व्यक्ति और समाज के बीच का सेतु है। उसके इस ओर व्यक्ति है, उस ओर समाज । व्यक्ति का मूल आधार है संवेदन और समाज का मूल आधार है विनिमय । वस्तु सामाजिक है, क्योंकि उसका विनिमय किया जा सकता है । संवेदन वैयक्तिक है, क्योंकि उसका विनिमय नहीं किया जा सकता।
समाजशास्त्री मेकाइवर के अनुसार 'समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल है।' 'समाज सामाजिक सम्बन्धों की एक पद्धति है, जिसके द्वारा हम जीते हैं। समाजशास्त्री ग्रीन के अनुसार 'समाज एक बड़ा समूह है जिससे हर व्यक्ति संबद्ध है। इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सम्बन्ध स्थापित होता है और जीने के लिए हर व्यक्ति के लिए सम्बन्ध स्थापित करना आवश्यक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org