________________
अहिंसा : व्यक्ति और समाज
परिपूर्ण नहीं है । मूल में शक्ति होती है, पर निमित्त का योग मिले बिना उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। समग्रता की दृष्टि से विचार करें तो यह सूत्र बनेगा-व्यक्ति, आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था । इन तीनों में सापेक्ष और संतुलित परिवर्तन हो तभी स्वस्थ समाज या अहिंसक समाज की परिकल्पना की जा सकती है।
सोवियत रूस, चीन आदि अनेक देशों में आर्थिक व्यवस्था और समाजव्यवस्था के परिवर्तन पर बहुत भार दिया गया। फलस्वरूप वहां व्यवस्थाएं बदल गईं, फिर भी व्यक्ति नहीं बदला । व्यक्ति आज भी वैसा ही है। नियंत्रण की स्थिति में भी आर्थिक और सामाजिक अपराध हो रहे हैं । यदि नियंत्रण को ढीला किया जाए तो अपराध की वृद्धि हो सकती है। कोरा व्यवस्थापरिवर्तन पर्याप्त नहीं है। इसे समाजवादी या साम्यवादी जीवन-प्रणाली के संदर्भ में देखा जा सकता है।
ब्रिटेन, अमरीका, हिन्दुस्तान आदि देशों में लोकतंत्रीय प्रणाली चल रही है। उसमें व्यक्ति को वाणी, लेखन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। किन्तु व्यक्ति की उपेक्षा नहीं की गई है। हर व्यक्ति को अपनी योग्यता के विकास का समान अवसर दिया गया है। आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था पर पूरा नियंत्रण नहीं है । इसलिए लोकतंत्रीय प्रणाली में एक व्यक्ति अरबपति बन सकता है और दूसरा रोटी के लिए तरसता रह जाता है। जीवन-निर्वाह के साधनों की उपलब्धि की अनिवार्य व्यवस्था नहीं है। व्यक्तिगत स्वामित्व की कोई सीमा नहीं है।
हमारे विश्व की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दोनों (लोकतंत्रीय और साम्यवादी) प्रणालियों में हिंसा के बीज निहित हैं। अब विश्वशांति के लिए एक तीसरी प्रणाली के विकास की आवश्यकता है । जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है-अनेकांतवाद । उसके अनुसार तीसरी जाति निर्दोष होती है। दर्शन के क्षेत्र में नित्यवाद की अवधारणा मान्य है । अनित्यवाद भी सम्मत है। अनेकांत के अनुसार ये दोनों निर्दोष नहीं हैं। इन दोनों का समन्वय कर नित्यानित्यवाद बनता है। वह निर्दोष है। ठीक इसी प्रकार समाजवादी अर्थव्यवस्था का सूत्र-~-व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा और लोकतंत्र की व्यक्तिगत स्वतंत्रता-इन दोनों का योग कर समाज-व्यक्तिवादी प्रणाली का विकास किया जाए तो विश्व शांति की समस्या को स्थाई समाधान दिया जा सकता है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार "टायनबी" ने रोटी और आस्था के प्रश्न को विश्व के सम्मुख रखा था । रोटी को छोड़कर आस्था और आस्था को छोड़कर रोटी पाने की प्रवृत्ति निर्दोष नहीं हो सकती। जिस प्रणाली में रोटी और आस्था दोनों का समीचीन योग हो, वही प्रणाली विश्व शांति के लिए प्रशस्त हो सकती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org