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विश्वशांति और अहिंसा
समाज में अनेक लोग होते हैं। वे परस्पर एक सूत्र से बंधे हुए होते हैं । वह सूत्र है-परस्परता। अनेक होना समूह है। केवल समूह समाज नहीं बनता। समाज परस्परता के सूत्र से बंधकर ही बनता है । एक धागे में पिरोए हुए मनके माला का रूप लेते हैं । उस धागे का मूल्यांकन करना सबसे अधिक आवश्यक है।
भगवान महावीर की पच्चीसवीं निर्माण शताब्दी मनाई गई। उस अवसर पर एक जैन प्रतीक प्रस्तुत किया गया । उसकी आधार-भित्ति में एक सूत्र अंकित है-- "परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।" यह जैन परम्परा के प्रथम संस्कृत ग्रंथ का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। इसका अर्थ है-जीवों में परस्पर उपग्रह-अनुग्रह अथवा उपकार का संबंध है। उद्योगपति अपने मजदूर को वेतन देता है और मजदूर उद्योगपति के हित का साधन करता है तथा अहित का निवारण करता है-यह है परस्पर-उपग्रह । आचार्य अपने शिष्य को ज्ञान देता और उससे अनुष्ठान कराता है। शिष्य आचार्य के अनुकूल प्रवृत्ति करता है, उनके निर्देश को शिरोधार्य करता है । यह है परस्पर-उपग्रह । हमारे जीवन का सूत्र संघर्ष नहीं है । संघर्ष एक विवशता है। वह स्वतंत्र प्रवृत्ति नहीं है। परस्पर-उपग्रह यह उसकी स्वतंत्र प्रवृत्ति है। संघर्ष जीवन है-यह सूत्र मनुष्य को हिंसा की ओर उन्मुख करता है। परस्पर-उपग्रह की धारणा उसे अहिंसा की ओर ले जाती है।
हम सामाजिक जीवन जी रहे हैं। समाज का घटक है व्यक्ति । जैसा व्यक्ति होता है वैसा समाज होता है। जैसा समाज होता है वैसा व्यक्ति होता है । इन दोनों विकल्पों में सच्चाई है, किन्तु सापेक्ष। वर्तमान में समाज की अवधारणा आर्थिक व्यवस्था और परिस्थिति से जुड़ी हुई है। आर्थिक व्यवस्था और परिस्थिति अच्छी है तो व्यक्ति अच्छा होगा, यह मान लिया गया है। इसमें निमित्त को सब कुछ मान लिया है। व्यक्ति की अपनी योग्यता की उपेक्षा की गई है । अच्छाई और बुराई का उपादान या मूल कारण हैव्यक्ति की अपनी योग्यता और उसका निमित्त कारण है--आर्थिक-व्यवस्था और सामाजिक परिस्थिति । व्यक्ति के संदर्भ में इस सिद्धांत की आलोचना करें तो यह तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
जैसा व्यक्ति वैसा समाज-इस सिद्धांत में मूल कारण को सब कुछ मान लिया गया और निमित्त कारण की उपेक्षा की गई इसलिए यह भी
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