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________________ १८ अहिंसा : व्यक्ति और समाज रूप से एक दूसरे को भोजन के रूप में भक्षण करने को अन्तःप्रजातीय हिंसा नहीं कहा जा सकता। संग्राम करना केवल मात्र मानवीय प्रपंच है, जिसका अन्य पशू-प्रजातियों में कोई प्रचलन नहीं है। __यह तथ्य कि युद्ध-कला में समय बीतने के साथ अनेक परिवर्तन आये हैं, इस बात का प्रतीक है कि युद्ध संस्कृति की एक उपज मात्र है। इसका जैविक सम्बन्ध मुख्यत: भाषा के माध्यम से है, जो जन-समुदायों में समन्वय स्थापित करना, युद्ध की तकनीकी और विभिन्न हथियारों के प्रयोग सम्बन्धी जानकारी का सम्प्रेषण आदि कार्यों को करती है। प्राणी-शास्त्र की दृष्टि से युद्ध संभव है, किन्तु अवश्यंभावी नहीं, जिनका प्रमाण हमें समय और अंतरिक्ष पर इसकी प्रकृति और घटना की विभिन्नता में मिलता है । ऐसी भी सांस्कृतियां हैं, जिनमें कई शताब्दियों तक युद्ध नहीं हुए, तो कुछ संस्कृतियों ऐसी हैं जिनमें किन्हीं खास समय में युद्ध बार-वार लड़े गये, तो ऐसा समय भी आया जिसमें युद्ध बिल्कुल लड़े ही नहीं गये। यह कहना वैज्ञानिक दृष्टि से बिल्कुल गलत है कि युद्ध या अन्य हिंसक व्यवहार मनुष्य की वंशानुगत प्रकृति है। जबकि नाड़ी-तन्त्र की कार्य-प्रणाली में जीन्स सभी स्तरों पर प्रभावी होते हैं, उनमें विकास की वह क्षमता निहित है, जो केवल पर्यावरण और सामाजिक वातावरण के संसर्ग में आकर ही अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होती है। जबकि, भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की प्रवृत्तियां उनके अनुभवों से विभिन्न रूपों में प्रभावित होती रहती हैं तथा उनके व्यक्तित्व के निर्धारक तत्त्व उनके वंशानुगत गुणों और पालन-पोषण की स्थितियों के बीच की अन्तःक्रिया होती हैं । यदि कोई सामान्य विकृति न हो, तो जीन्स मनुष्य की प्रवृत्ति को हिंसात्मक नहीं बनाते, न ही वे इसके विपरीत प्रभाव दिखाते हैं। जीन्स मानव की व्यवहारगत क्षमताओं के निर्धारण में अपनी भूमिका अवश्य निभाते हैं, किन्तु वे इसके परिणामों का बोध नहीं कराते। यह भी वैज्ञानिक दृष्टि से गलत है कि मानव विकास की प्रक्रिया में हिंसात्मक व्यवहार को अन्य प्रकार के व्यवहारों की तुलना में प्रधानता दी गई है। विभिन्न प्रजातियों के अध्ययन से यह सुस्पष्ट है कि किसी भी प्राणी का उसके समुदाय में स्थान इस बात पर निर्भर करता है कि किस सीमा तक वह अपने वर्ग या समुदाय को उसकी व्यवस्था के अनुरूप सहयोग देने एवं सामाजिक सेवा के कार्य करने में समर्थ है। "प्रभुत्व" में सामाजिक बन्धन एवं सामाजिक सम्बन्ध अन्तर्ग्रस्त है जिसका तात्पर्य केवल उच्च शारीरिक शक्ति का अस्तित्व और प्रयोग मात्र नहीं है। हालांकि इसमें आक्रामक व्यवहार का भी समावेश है। जहां पशुओं में आक्रामक व्यवहार के लिए आनुवंशिक चयन कृत्रिम रूप से स्थापित किया गया, उससे उग्रतम आक्रामक पशुओं की उत्पति में सफलता मिली है। इससे इस बात का पता चलता है कि आक्रमणशीलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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