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________________ हिंसा मनुष्य का स्वभाव नहीं हिंसा और युद्ध मानव जाति की सबसे अधिक भयावह और विध्वंसात्मक क्रियायें हैं, और हमारे मतानुसार हमारी यह जिम्मेदारी है कि हम अपनेअपने क्षेत्रों में इस समस्या हेतु जूझ पड़ें। यह मानते हुए कि विज्ञान भी मनुष्य की एक सांस्कृतिक उपज मात्र है, जो न पूर्णतः विकसित है और न सर्वव्यापी है, तथा स्पेनिश यूनेस्को तथा सेवाइल अधिकारियों के योगदान के लिए कृतज्ञता प्रकट करते हुए, विश्व के चारों ओर से आये हुए तथा सम्बद्ध विज्ञानों के हम अधोहस्ताक्षरी विद्वान् एक स्थान पर एकत्रित होकर हिंसा के सम्बन्ध में निम्नांकित बयान जारी करते हैं । इस बयान में हम उन असंख्य जैविकी आविष्कारों को भी चुनौती देते हैं, जिनका उपयोग हममें से अनेक व्यक्तियों ने हिंसा और युद्धों को उचित ठहराने में किया है । चूंकि उपर्युक्त दोषपूर्ण खोजों से वर्तमान में निराशावादिता का वातावरण बना है अतः हमारा विनम्र तर्क है कि उक्त (जैविकी) दोषपूर्ण तथ्यों के बारे में किये गये कथनों को खुले रूप से नकारने से अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति वर्ष को विशेष बल मिलेगा। हिंसा और युद्ध को न्यायोचित सिद्ध करने में वैज्ञानिक आविष्कारों और आंकड़ों का किया गया दुरुपयोग नई बात नहीं है, यह वर्तमान विज्ञान के प्रारम्भिक काल से ही चला आ रहा है। उदाहरणार्थ, विकास के सिद्धांत का उपयोग न केवल युद्ध को अपितु नर-संहार, उपनिवेशवाद और कमजोर व्यक्तियों के दमन को भी उचित सिद्ध करने में किया गया है। हम (इस सम्बन्ध में) हमारी स्थिति को पांच प्रस्तावों के रूप में स्पष्ट कर देना चाहते हैं । हमें भली प्रकार ज्ञात है कि हिंसा और युद्ध से सम्बद्ध अन्य विचार-बिन्दुओं पर भी अपनी-अपनी विशेष विद्याओं की दृष्टि से सफलतापूर्वक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, किन्तु हम अपने विचार-मंथन को यहां सर्वाधिक महत्त्व के प्रथम चरण तक ही सीमित रखेंगे । . यह कहना वैज्ञानिक दृष्टि से पूर्णतः गलत और भ्रामक है कि युद्ध करने की प्रवृत्ति हमें हमारे पशु-पूर्वजों से मिली है । यद्यपि विभिन्न पशु-प्रजातियों में पारस्परिक संघर्ष होता चला आया है, सामान्यतौर पर जीवनयापन करने वाली पशु-प्रजातियों की संगठित टुकड़ियों में विनाशकारी अन्तर्युद्धों के बहुत थोड़े उदाहरण हमारे सामने आये हैं, किन्तु उनमें से किसी में भी हथियारों के रूप में निर्मित शस्त्रों का उपयोग नहीं किया गया है । सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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