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हिंसा का कारण : अभाव और अतिभाव
भगवान महावीर ने कहा---'अट्टावि संता अदुवा पमत्ता'--कुछ लोग अभावग्रस्त होकर हिंसा आदि में प्रवृत्त होते हैं, कुछ अतिभाव-प्रमाद से । धर्म दोनों प्रकार के लोगों को आश्वासन और त्राण देने वाला होता है। धर्म का उदय ही इसलिए हुआ है कि वह अभावग्रस्त लोगों को हीनभाव से बचाए और संग्रह और भोग की ओर बढ़ते हुए लोगों को उन्माद और प्रमाद से बचाए, उन्हें मानवीय उदात्त भावनाओं की ओर मोड़ दे।
जहां तक ज्ञात हुआ है, साम्यवादी देशों में भी जहां-जहां सम्पन्नता बढ़ी है, वहां अपराधों की संख्या में वृद्धि हुई है । यही कारण है कि रूस, चेकोस्लाविया आदि साम्यवादी देश यह अनुभव कर रहे हैं कि धर्म के भावनात्मक और निर्माणात्मक पक्ष को समाप्त कर हमने भूल की है।
हत्याओं का निकट सम्बन्ध प्रतिशोध से होता है। लेकिन अमेरिका में बढ़ रही हत्याओं के पीछे मनोरंजन का भाव अधिक काम कर रहा है । आए दिन होने वाली हत्याओं की घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि उनके पीछे यश-लिप्सा, आत्मख्यापन, कुतूहल और मनोरंजन का भाव अधिक दिखाई देता है । लगता है, अतिभाव और सम्पन्नता के कारण वहां के मानस में मूढ़ता पैदा हो गयी है। इस मूढ़ता से ही उनके दिलों में मानवीय सहृदयता और संवेदनशीलता का अभाव बढ़ता जा रहा है, जिसका परिणाम इन दुर्घटनाओं के सिवा और हो भी क्या सकता है !
धर्म उन्माद और प्रमाद पर अंकुश लाता है और मानव के प्रति सहृदय और संवेदनशील होने की प्रेरणा देता है । अमरीका में यद्यपि धर्म पर कोई प्रतिबन्ध नहीं हैं, किन्तु वहां धर्म का स्वरूप 'चमत्कार' और 'ईसा की शरण में आने मात्र से पाप-मुक्ति' पर ही अधिक आधारित है। यही कारण है कि धर्म के मौलिक मूल्यों की वहां प्रतिष्ठा नहीं हो रही है । कोरियन पर्यटक प्रोफेसर ने जब अहिंसा और अणुव्रत का संदेश सुना तो वह आश्चर्य-मिश्रित दु:ख के स्वर में बोला--'काश, हम पश्चिम वालों को यह संदेश सुनाने वाला कोई होता तो हम निरन्तर महायुद्धों में पड़ कर बर्बाद नहीं होते !' इससे लगता है कि धर्म के वास्तविक मूल्यों से उनका परिचय नहीं है । इसलिए हिंसा का क्रमशः विस्तार हो रहा है और लोगों को अहिंसा के मूल्यांकन का अवकाश भी नहीं मिल रहा है।
धर्म अपने से अपना अनुशासन देता है। जब स्वयं पर अनुशासन नहीं
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