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________________ नये जीवन का निर्माण १८५ वचन की गुप्ति और मन की गुप्ति करनी होती है । मन, वचन और कायातीनों का संयम करना होता है। श्वास को भी शांत करना होता है। श्वास भी तेज रहेगा तो अपने आपको नहीं जाना जा सकेगा। परिणाम स्वयं की खोज का ___ श्वास का और हमारे भाव-संस्थान का बहुत घनिष्ठ संबंध है। भाव में उत्तेजना आई, आवेश आया, श्वास छोटा बन जाएगा, संख्या बढ़ जाएगी। आवेश शांत हुआ, श्वास की संख्या घट जाएगी। श्वास और आंतरिक व्यक्तित्व का बहुत गहरा संबंध है। श्वास शांत और मंद, शरीर कायोत्सर्ग की मुद्रा में, वाणी का संयम और मन एकाग्र, किसी चैतन्य केन्द्र पर टिका हुआ—यह स्थिति बनती हैं तब अपने आपको जानने का अवसर मिलता है। उस क्षण में यह अनुभव होता है कि मैं क्या हूं और मेरे भीतर क्या है। इस स्थिति में आनन्द का अनुभव होता है, शांति का अनुभव होता है, पदार्थ-विहीन सुख का अनुभव होता है और आदमी अपने अस्तित्व को, अपने भीतर जो सम्पदा है उसको समझ सकता है, उसका अनुभव कर सकता है। उस अवस्था में बुरे विचार आते हैं तो वह समझ सकता है कि भीतर अभी तक कचरा भरा हुआ है। अच्छे विचार आते हैं तो समझ सकता है कि अच्छाइयां भी भरी हुई हैं। कभी दुःख का अनुभव होता है तो वह समझ सकता है कि भीतर में अभी प्रचुर संचय है मैंने दुःखों का बहुत अर्जन किया था, अभी दुःख क्षीण नहीं हुए हैं। कभी सुख का अनुभव होता है तो वह समझ सकता कि मैंने कुछ अच्छा भी किया है । वह विपाक में आ रहा है, प्रगट हो रहा है। अपना जो कृत है, और उसका जो विपाक उसे वह जान लेता है । यह है अपनी पहचान । जब अपनी पहचान और अपना ज्ञान होता है तो नये निर्माण का मौका मिलता है। व्यक्ति अपने आपका नया निर्माण कर सकता है और वह सोच सकता है कि जो अशुभ है, जो अनिष्ट है, जो बुरा है, उसे मैं न करूं । जो मैं करता हूं, वह भीतर संचित रहता है और उसका विपाक मुझे भुगतना पड़ता है। उस दिशा में न जाऊं । मैं उस दिशा में जाऊं जहां यह अशांति नहीं है, दुःख नहीं है, अनिष्ट नहीं है, बुरा नहीं है । जागृति सम्यग् दर्शन की __ अपनी पहचान का अर्थ है-एक नये संकल्प का जागना । जब अपनी पहचान होती है तब मिथ्यादर्शन टूटता है और सम्यग् दर्शन बनता है । सम्यग् दर्शन बनते ही जीवन की सारी यात्रा बदल जाती है । यात्रा का पथ बदल जाता है ।। मनुष्य को जीवन की यात्रा में दो तत्त्वों का सामना करना होता है । एक है काम और दूसरा है अर्थ । अपनी पहचान से काम और अर्थ के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
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