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________________ सत्य और मानसिक शांति १७१ कम से कम मेरे त्राण बनेंगे, मेरी सेवा करेंगे, मेरा सहयोग करेंगे। किंतु बात उलटी होती है। उस स्थिति में परिवार के लोग भी पास में नहीं फटकते । दूसरे भी सोचते हैं, पास में जाएंगे तो सह योग करना होगा, फंस जाएंगे । सभी किनारा कसते हैं । ऐसी स्थिति में अत्राण व्यक्ति के मन का संतुलन बिगड़ जाता है और वह अपने आपको अत्यन्त दुःखी अनुभव करता है। यदि वह "मैं अत्राण हूं" इस सचाई को हृदयंगम कर लेता है और इसे नम्बर एक की सचाई मानकर, अमुक मेरा सहयोग करेंगे, इसे नम्बर दो की सचाई मानता है तो वह इस दुःखद स्थिति के पार चला जाता है। अत्राण की अनुभूति है वास्तविक सचाई और आरोपित त्राण की अनुभूति है व्यावहारिक सचाई। जब हम वास्तविक सचाई को मानकर चलते हैं तो कोई कष्ट नहीं रहता। यदि बुढ़ापे में लड़का सेवा नहीं करता है तो भले ही न करे । कष्ट का संवेदन नहीं होगा। अन्यथा बुढ़ापे के दुःख से भी सेवा न करने का दुःख भारी हो जाएगा, संवेदन तीव्र होने लग जाएगा। दोहरा कष्ट भोगना पड़ेगा। मानसिक कष्ट बुढ़ापे में शारीरिक कष्ट से भी भारी हो जाता है। जिसको त्राग मान रखा है, वही यदि अत्राण बन जाता है, तब बहुत मानसिक कष्ट होता है। सुधार का प्रश्न ही कहां आदमी रास्ते पर चल रहा था। पीछे से एक कार तेजी से आ रही थी। उसमें डाक्टर बैठा था। उसे अस्पताल जाने में देरी हो रही थी। कार की गति तीव्र थी। पथिक उसकी चपेट में आया और घायल होकर रास्ते पर गिर पड़ा। कार आगे बढ़ गई। लोग एकत्रित हुए। वे डाक्टर को लाने की बात कर रहे थे। घायल व्यक्ति बोला, आप नहीं जानते । मुझे घायल करने वाला डाक्टर ही तो था । जो दूसरों की हालात सुधारता है, वही यदि हालात बिगाड़ दे तो फिर सुधार का प्रश्न ही कहां उठता है। बहुत बड़ा प्रश्न है मानसिक दु:ख के संवेदन का, संताप का । दुःख का अनुभव तीव्रता से तब होता है जब आदमी अशक्त हो जाता है, बूढ़ा हो जाता है, जिसका वैभव या धन छिन जाता है, जिसे अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थिति आकर घेर लेती है। ऐसी स्थिति में आदमी को कटु अनुभव होता है और तब उसे प्रतीत होने लगता है कि त्राण या सहारा कोई है ही नहीं। दोहरी मूर्खता आचारांग सूत्र में दोहरी मूर्खता को समझाते हुए कहा गया हैआदमी की एक मूर्खता तो यह है कि वह हिंसा करता है और दूसरी मूर्खता यह है कि वह हिंसा को हिंसा नहीं मानता । यह दोहरी मूर्खता है। बुढ़ापे में सेवा का न होना एक दुःख है और 'मेरी कोई सेवा नहीं करता' यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003065
Book TitleAhimsa ke Achut Pahlu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size9 MB
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