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सत्य और मानसिक शांति
१६६ प्रलयंकारी हवाओं के झोंकों से पर्वत कभी प्रकंपित नहीं होता, वह सदा अविचल रहता है। मन को भी पर्वत की भांति अडोल बनाया जा सकता है। उसे इतना गहरा और ऊंचा उठाया जा सकता है कि वह प्रकंपित न हो । यह तभी संभव है जब व्यक्ति की आस्था सत्य के साथ जुड़ जाए। जब सत्य की आस्था नहीं होती है तब प्रतिकूल परिस्थिति को सहना अत्यन्त कठिन काम हो जाता है।
मानसिक अशांति का एक कारण है-प्रतिकूल परिस्थिति को न सह -सकना । सचाई को जाने
साधक ध्यान के द्वारा सचाइयों को जानना चाहता है। वह कुछ सचाइयों को जानता भी है और कुछ सचाइयों को नहीं भी जानता । जो अज्ञात हैं उन सचाइयों को जानने के लिए साधक ध्यान-शिविरों में आते हैं। जब वे सचाइयां अभ्यास के द्वारा साक्षात् होती हैं, साधक में विपरीत परिस्थिति में भी स्वस्थ, संतुलित और प्रसन्न रहने की क्षमता जाग जाती है।
अनेक सचाइयां हैं। पहली सचाई है-मैं अकेला हूं। आदमी इसे नहीं जानता। वह जानता है मेरा परिवार, मेरी जाति, मेरा समाज, मेरा राष्ट्र, मेरा संप्रदाय । वह समूह, समाज और संप्रदाय की सचाई से परिचित है । वह भीड से परिचित है । "मैं अकेला हूँ" इस सचाई मे वह परिचित नहीं है। इसीलिए मानसिक समस्याएं पैदा होती हैं, विपरीत परिस्थितियां आती हैं और मन का संतुलन बिगड़ जाता है। सचाई के दो कोण
किसी ने कुछ कहा--पति ने पत्नी से कहा, पत्नी ने पति से कहा, पिता ने पुत्र को या पुत्र ने पिता को कुछ कहा। कोई किसी की बात नही सुनता । मन पर चोट होती है कि पति ने मेरी बात नहीं मानी, पत्नी ने मेरा कहना नहीं माना, बेटे ने मेरी सलाह नहीं मानी। बड़ा कष्ट होता है । परिस्थिति
और वातावरण विपरीत बन जाता है। मन असंतुलित और अशांत हो जाता है । मानसिक शांति भंग हो जाती है । ऐसा इसलिए होता है कि आदमी ने सचाई के एक पहलू को तो जान लिया, पर दूसरे पहलू को नहीं जाना। सिक्के का एक पहलू सामने है, दूसरा नहीं है । वह एक सचाई से खूब परिचित है कि मेरा जीवन सामुदायिक है किंतु वह इस सचाई को नजरअंदाज कर देता है कि मेरा अपना अकेले का स्वतंत्र जीवन भी है। मेरा ही नहीं, सबका है। वह नहीं जानता-मैं वस्तुत: अकेला हूं, अकेला था और अकेला रहूंगा । मैं अकेला आया हूं और अकेला ही संसार से चला जाऊंगा। सुख का संवेदन भी अकेले को होता है और दुःख का संवेदन भी अकेले को होता है । अकेला होना
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