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नैतिकता और व्यवहार
૬.
अभ्युपगम में अन्तर आ गया । सुख और दुःख मान लिया गया वैयक्तिक इच्छा के अनुसार या सामूहिक इच्छा के आधार पर ।
इच्छा आधारित सुख और दुःख नैतिकता या अनैतिकता की वास्तविक कसौटी नहीं बन सकता । जो सुख कर्म - विलय से और दुःख कर्म - बंध से होता है वह नैतिकता - अनैतिकता का आधार बनता है । निर्जरण सुख है, बंधन दुःख है ।
प्रवृत्ति संयत हो
प्रवृत्ति के तीन विभाग हैं - सत् प्रवृत्ति, असत् प्रवृत्ति और निवृत्ति या अप्रवृत्ति | विवेक कैसे हो कि अमुक प्रवृत्ति सत् है और अमुक प्रवृत्ति असत् है । दो आदमी बात कर रहे हैं। तीसरा व्यक्ति इनमें से एक को कहता है, तुमने गलत कहा है। तुमने भाषा समिति का ध्यान नहीं रखा । दूसरे को कहता है, तुमने ठीक कहा । तुमने भाषा समिति का ध्यान रखा । एक को बेठीक और एक को ठीक कहने का आधार क्या रहा ?
एक बार आचार्य ने शिष्य की परीक्षा लेने के लिए कहा — जाओ, आम ले आओ । शिष्य को यह आदेश विचित्र - सा लगा, क्योंकि जैन मुनि सीधा आम नहीं खाते। उसने कहा- गुरुदेव ! यह कैसा आदेश ? मुनि आम नहीं खा सकते। गुरु ने कहा- बैठ जाओ। उन्होंन दूसरे शिष्य से कहा- जाओ, आम ले आओ। वह बोला - गुरुदेव ! कौन सा लाऊं, आचार का या केरी का। गुरु बोले- तुम भी बैठ जाओ। तुम विनीत हो और पहला शिष्य अविनीत है । इस कथन का आधार यह था कि पहले शिष्य ने भाषा की असंयत प्रवृत्ति की और दूसरे ने संयत प्रवृत्ति । पहले शिष्य ने कहा - गुरुदेव । आप ऐसे गलत आदेश देते हैं । यह अविश्वास की भाषा है, असंयत भाषा प्रयोग है । दूसरे शिष्य ने आदेश सुनकर पूछा - गुरुदेव ! कौन सा आम लाऊं । वह जानता था, गुरु अन्यथा आदेश कभी नहीं देते। उनका अभिप्राय सापेक्ष है ।
निवृत्ति से अनुस्यूत प्रवृत्ति नैतिक
एक नियम बना कि जिस प्रवृत्ति के साथ गुप्ति होती है, वह प्रवृत्ति सम्यक् हैं, वह व्यवहार सत् है । जिस प्रवृत्ति के पीछे गुप्ति नहीं होती, वह व्यवहार असत् है । गुप्ति का अर्थ है - संयम, निवृत्ति । हमारी जिस प्रवृत्ति के साथ मन, वाणी और शरीर की गुप्ति होती है, वह प्रवृत्ति सम्यक् होती है, वह व्यवहार और आचरण नैतिक बन जाता है । जिस प्रवृत्ति के पीछे गुप्ति नहीं होती, असंयम होता है, वह मन, वाणी और काया का व्यवहार अनैतिक बन जाता है, असत् बन जाता है । यह वास्तविक कसौटी है । निवृत्ति से अनुस्यूत या अनुप्राणित प्रवृत्ति नैतिक होती है और निवृत्ति से
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